शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

गरीबी क्यों WHY POORNESS

क्या है गरीबी , जहाँ तक मैं समझता कि गरीबी से तात्पर्य है - वह आर्थिक तंगी जो परेशान करे और जिसके बिना जीवन जीने में अड़चन पड़े । अपने देश  में अधिकांश लोगों की ऐसी मनः स्थिति और जिसके अनेक कारण है। रोजगारों का न मिलना और ऐसे ही न जाने कितने ही कारण है। और इसके के लिए सरकारों को दोशी ठहरना कहाँ तक उचित है । हाँ मैं यह भी मानता हूँ कि गरीबी रेखा से नीचे से दरिद्रता का जीवन जी रहे लोगो के जीवन में परिवर्तन के लिए सरकारों के द्वारा मदद की जानी चाहिए।
लेकिन कितनी मदद करे ,गरीबी और दरिद्रता क्या इसमें सिर्फ सरकारें दोशी है, दरिद्रता से पीढ़ितों के लिए सहयोग जुटाने की तरह ही उन्हें यह समझाना आवष्यक हैं कि अपने व्यक्तित्व में दक्षता व्यवस्था तत्परता की कमी बनाये रखने वाला स्वभाव ही खुशहाली के मार्ग में भयानक चट्टान बन कर अड़ा हुआ है। यही दोश कभी अवसाद बनकर उत्पादन रोक देते हैं । कभी लापरवाही या अपव्यय बनकर साधनों को बरबाद कर देते है। उक्त दोशों के रहते धन का सहयोग उल्टे आलस्य तथा गलत आदतों जैसे की नशा आदि की आदतें पैदा कर देता है। जो उन्नति के स्थान पर दुर्गति का कारण बनता हैं। 
यदि लोगों में प्रगति के लिए व्यापक उत्साह उभारा जा सके और उसके आधार के रूप में अगर उसके आधार के रूप में अपनी दक्षता तत्परता के प्रयासों को स्वीकारा जा सकें तो समझना चाहिए कि गरीबी उन्मूलन की आधी योजना सफल हो गई। ऐसा होने पर उदारचेतानाओं , संस्थाओं , सरकारी सहयोगों की व्यवस्था बनाकर षेश आधा कार्य आसानी से पूरा किया जा सकता है। 
जब दूसराविश्वयुद्ध
में बुरी तरह से आहत और क्षतिग्रस्त जापान, जर्मनी और रूस आदि जैसे न जाने कितने देश थोड़े समय में ही आष्चर्यजनक उन्नति कर ली । किसी समय का अफीमची देश चीन आज बड़ो - बड़ों को आँख दिखाता है। यह चमत्कार तब हुए जब जन-जन ने अपनी दक्षता , व्यवस्था और स्वयं जिम्मेदारियों को समक्षकर श्रमषीलता से उभारी और जनशक्ति को कश्ट साध्य कर्मठता में नियोजित किया।
लेकिन हमारे पिछड़ेपन का कारण है हमारा आलस्य और मानसिक प्रमाद है , यह एक प्रकार की अपंगता है जो प्रायः मनःक्षे़त्र पर छायी रहती है। वह ढर्रे के क्रियाकलाप तो किसी प्रकार पूरे कर लेती है, पर यह नही सोचने देती की पुराने व्यवस्था किस प्रकार के सुधार की आवष्यकता है कि नहीं ? यदि सुधार की आवष्यकता है तो उसे किस प्रकार सम्भव किया जाना चाहिए । आगे बढ़ने के लिए इच्छा का होना आवष्यक है। मन पर प्रमादता यदि छाई रही तो यथास्थिति बनाये रहना भी कठिन हो जाता है । अगर मानसिक आलस्य अगर नहीं त्यागा तो वह फिर पतन की ओर खिंचने मे सफल हो ही जाता है। लेकिन अगर मानसिक आलस्य को त्यागने से वह उत्थान की ओर बढ़ ही जाता है।
जड़ मत बनिये , जड़ता पत्थरों के लिए तो स्वाभाविक मानी जा सकती है पर प्राणधारियों के लिए उसे योग्य नहीं माना जा सकता है । फिर मनुश्य की विषेशता को देखते हुए उससे और भी अधिक आषा की जाती है। बरगद का पेड़ अपनी षाखाओं में से जड़े निकालता रहता है और उन्हें नीचे जमीन मे धँसाकर अधिक पोशण पाने और अधिक बढ़ने में जुटा रहता है। 

लेकिन ईष्वर ने मनुश्यों को जो चेतना प्रदान की है उसकी चेतना को देखते हुए इच्छित दिषा में ऐसी ही प्रगति करते रहना सम्भव है। गरीबी की रेखा को लाँघते हुए समर्थ सम्पन्नता उपलब्ध कर सकता है। लेकिन उस आलस्य को क्या कहा जाए जो उज्जवल भविश्य के सपने देखना तक सहन नहीं करता और भाग्य के भरोसे किसी प्रकार जिन्दगी के दिन काटते रहने की बात सोचकर अनिवार्य क्रियाषीलता न अपनाकर निश्क्रिय हो बैठता है। गरीबी से ग्रसित लोगों में से ज्यादातर लोग मानसिक अवसाद में फंसे हुए होते है और छप्पर फाड़कर धन बरसने जैसे मीठे सपने उन्हें भले ही दिख जाते है। 
मानव को तो सामथ्र्य असाधारण दिया है ईष्वर ने पर उसका पूरा उपयोग बन पड़ने पर निर्वाह की मौलिक जरूरतों मे कमी पड़ने जैसी दुर्घटना घटित नहीं हो सकती । पषु पक्षी हमेषा साधन रहित होते हुए भी षरीर यात्रा की आवष्यक साधन सामग्री अपनी अविकसित संरचना के सहारे भी जुटा लेते हैं और क्रीड़ा कलोल करते , चहकते उछलते जिन्दगी काट लेते हैं, पर हम लोग ही क्यों दरिद्रता के चंगुल में जकड़े रहते है ? 
पर इसमें भी दो बातें है अभावजन्य कश्ट सहना , उसके लिए भाग्य को या जिस तिस को दोश देते रहना एक बात है और अपनी सामथ्र्य और तत्परता को बढ़ाते हुए प्रगति का पथ प्रषस्त करना सर्वथा दूसरी । 
मनुश्य की प्रगति के इतिहास का हर पृश्ठ यही बताता है कि ’जिन खोजा तिन पाइयाँ ’ की उक्ति षत-प्रतिषत सही है। उत्तरी ध्रुव पर बसने वाले एस्किमो जाति के लोगो में कुछ ने कनाडा से भी ऊपर उत्तरी ध्रुव पर जाकर बसने का साहस दिखाया और वे अपने सजातियों की तुलना में सभ्य समाज के सदस्य बनकर सुविधा भरी परिस्थितियां हस्तगत करने में सफल हुए। परन्तु राजस्थान के गाड़ियां लुहार अपनी यायाचर परम्परा के साथ इतनी बुरी तरह चिपके हुए हैं कि स्थाई निवास के लिए किए जाने वाले प्रयास अनुरोध - अनुदान भी उन्हंे रास नहीं आते । जिसके कारण यथा स्थिति पीढी दर पीढ़ी चलती आ रही है। 
लेकिन इस सबसे उपर उठते हुए हमें अपनी आजीविका अभिवृद्धि के लिए समय को बेकार गवाने की बजाय श्रम को सम्मान देना चाहिए । और साथ ही नई कसौटी यह भी उभरनी चाहिए कि जो आरामतलबी में समय गुजारतें उन्हें सम्मान न देकर कामचोरांे की पंक्ति में खड़ा करना चाहिए । मुफतखोर को सामाजिक प्रतिश्ठा से तो अलग ही कर देना चाहिए। आमदनी बढ़ने पर अधिक सुविधा साधन उपलब्ध किये जा सकते हैं। इस मोटी बात को सब जानते है और मानतेे भी है पर इस प्रत्येक पाई का श्रेश्ठतम सदुपयोग होना चाहिए। इस प्रकार जो गंवाया जाता है उसके कारण अच्छी कमाई वाले भी गरीबों और अभावग्रस्तों की जैसी दुर्दषा सहन करते है। जिन्हें पैसे का मूल्य और महत्व सही रूप में नहीं रखते वे अक्सर फिजूलखर्ची का भार असाधारण रूप से बढ़ा लेते हैं। साधन उसी प्रवाह में बह जाने पर उस समय संकट खड़ा होता है। जब आवष्यक वस्तुओं को जुटाना अनिवार्य हो जाता है । तब कर्ज लेने , अनैतिक आचरणों पर उतरनें , पूँजी को बेरहमी से समाप्त करके परिवार की स्थिरता को तहस नहस कर डालने जैसी परिस्थिया सामने आ खड़ी होती है इस लिए इन सब परिस्थियों से बचने के लिए हमेें अपनी मेहनत की कमाई को सोचसमझकर अतिआवष्यक कार्याें पर ही खर्च करके गरीबी और दरिद्रता से निकले।





मौत से ठन गयी - अटल बिहारी वाजपेयी जी

  ठन गई ! मौत से ठन गई ! झुझने का कोई इरादा न था ,  मोड पर मिलेगे इसका वादा न था  रास्ता रोक कर वो खड़ी हो गई , यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गयी ...