Deendayal Upadhyaya
Deendayal Upadhyaya/एकात्मवाद के प्रणेता:- पंडित दीनदयाल उपाध्याय भाग - 1 |
दीनदयाल जी के जन्मकाल के नक्षत्र एवं लक्षण विलक्षण थे । ज्योतिशियों ने उनके बारे में भविश्यवाणी की थी कि यह बालक अत्यन्त विलक्षण एवं
प्रतिभाषाली होगा। विद्या एवं ज्ञान में अग्रणी रहेगा। समाज तथा राश्ट्र की सेवा का व्रत धारण करेगा। देष-विदेष में सम्मान प्राप्त करेगा। यह
दलितों , षोशितों का उध्दार करने का बीड़ा उठायेगा। यह विवाह भी नहीं करेगा।
दीनदयाल जी के पिताजी रेलवे में कर्मचारी थे, इनका एक छोटा भाई भी था। इनकी माता जी दोनो बच्चों के साथ अपने मायके में थी। अभी इनकीआयु ढ़ाई वर्श की थी कि उसी समय इनके पिताजी का देहांत हो गया। माता जी को बड़़ा आघात लगा।उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। कुछ दिनोंके बाद उनका भी देहांत हो गया। तब दीना की आयु 7 वर्श की थी।
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Deen dayal Upadhyaya
दीनदयाल जी के नाना श्री चुन्नी लाल दोनांे बच्चों को लेकर अपने गांव आ गये, वह भी रेलवे विभाग में स्टेषन मास्टर थे। कुछ समय के बाद नाना चुन्नी लाल ने दोनों बच्चों को अपने मामा राधारमण के पास गंगापुर में भेज दिया। वहां पर दीना ने स्कूल में प्रवेष लिया। इस समय दीना की आयु 9 वर्श थी।
कुछ दिन के बाद मामा राधारमण को क्षयरोग हो गया। क्षय रोग छुआछूत की बीमारी होने के कारण स्थानीय चिकित्सकों ने इलाज करने से मना कर
दिया । लखनऊ में एक पारिवारिक सम्बन्धी चिकित्सा विभाग में कार्यरत थे। उन्होंने श्री राधारमण को अपने यहां आने के लिए कहा पर मामा के साथ
कोई व्यक्ति जाने को तैयार नहीं हो पाया तो दीना ही मामा के साथ लखनऊ गये जिससे इनकी पढाई रूक गई। जैसे ही मामा की तबियत कुछ ठीक
हुई। दीना वापस गंगापुर आये और स्कूल की परीक्षा में बैठे और कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
दीनदयाल जी ने आगे की पढाई के लिए कोटा के एक विद्यालय में 5वीं कक्षा में प्रवेष लिया। वहां इन्होनें छात्रावास में रहते हुये कक्षा 7 तक की पढाई
की इसके पष्चात् वह अध्ययन हेतु राजगढ़ गये जहां उनके एक अन्य चचेरे मामा श्री नारायण षुक्ल स्टेषन मास्टर थे।
सन् 1934 में इनके छोटे भाई शिवदयाल को टाइफाइड हो गया। जो ठीक न हो सका और उनका देहांत हो गया। भाई से बहुत स्नेह तथा आत्मीयता
थीं । इसी बीच उनके चचेरे मामा का भी राजगढ से सीकर स्थानान्तरण हो गया। सीकर में उनका प्रवेष 10वीं कक्षा में हुआ था। परीक्षा से कुछ दिन
पहले वह बीमार हो गये। और इलाज हेतु उन्हें मामा राधारमण के पास जाना पडा। ठीक होकर वापस लौटे और सम्पूर्ण अजमेर बोर्ड में प्रथम स्थान
प्राप्त किया। इससे प्रसन्न होकर सीकर के महाराजा ने उनको एक स्वर्ण पदक तथा 250रूपये का पुरस्कार दिया। 10 रूपये मासिक छात्रवृति भी प्रदान
किया।
............................................................आगे जारी
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