रविवार, 15 मार्च 2020

क्या है हिन्दू राष्ट्र What is Hindu Nation


https://2charaiveticharaiveti.blogspot.com/2020/03/HINDU-RASHTRA-HINDU-DHARMA-RAJYA.html


हिन्दू राष्ट्र  , हिन्दू राष्ट्र , हिन्दू राष्ट्र

हर तरफ हो हल्ला हो रहा कि हिन्दू राष्ट्र
लेकिन क्या है ये हिन्दू राष्ट्र का मसला
क्या भारत को हिन्दू राष्ट्र को बनाना है , क्या भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करना है.
आप के ऐसे बहुत से सवालों के जवाब है इस लेख में

मैं शुरूआत करता हूँ 1 से 7 मई 1977 ई.  साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपे एक किस्से से जामा मस्जिद के शाही इमाम सैय्यद अब्दुल्ला बुखारी जब मक्का गये तो वहाँ के निवासी ने उनसे पूछा - आप हिन्दू हैं ? ’ शाही इमाम ने चौक कर कहा - नहीं , नहीं मैं मुसलमान हूँ। बाद में उन्होंने प्रश्नकर्ता से पूछा कि , ‘ आपने मुझे हिन्दू क्यों कहा ? ’ तो उसका सहज उत्तर था, ‘ इसलिए कि आप हिन्दुस्थान से आये हैं।

ऐसे ही एक भारतीय से एक फ्रांसीसी ने पूछा कि , ‘‘ आपका मजहब क्या है?’’ उसने उत्तर दिया , ‘हिन्दू। फ्रांसीसी ने कहा , ‘ वह तो आपकी राष्ट्रीयता है। आपका मजहब क्या है ? ’

हिन्दू - इस देश के निवासी का नाम

न अरब निवासियों को और न ही फ्रांसीसियों या अन्य देश को इस बारे में कोई भ्रम है कि हिन्दू इस देश की राष्ट्रीयता का नाम है । जो भी इस देश का राष्ट्रीय है वह हिन्दू है, भले ही उपासना की दृष्टि से वह शैव, सिख, शाक्त , मुसलमान , ईसाई , बौद्ध , यहूदी , पारसी क्यों न हो । इस बात को न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला ने इन शब्दों में कहा है - फ्रांसीसी अपनी तर्क और यथार्थ बुद्धि के आधार पर समस्त भारतीयों को , फिर वे किसी भी जाति या समाज के क्यों न हों, ‘हिन्दू कहते हैं। मुझे लगता है कि यह उन सब लोगों का बिल्कुल सही वर्णन है जो इस देश में रहते हैं और इसे अपना घर मानते हैं। सच्चे अर्थाें में हम सब हिन्दू हैं, हालाँकि हम अलग - अलग मजहबों को मानते हैं। मैं हिन्दू हूँ क्योंकि मैं आर्याें से अपनी परम्परा को मानता हूँ जो पीढ़ी दर पीढ़ी उत्तराधिकार के रूप में हमें प्राप्त हुई है। यदि हम सब इस तथ्य को ही स्वीकार कर लें और वंश के नाते अपने आपको हिन्दू कहने लगें तो यह सेक्युलरवाद की सबसे बड़ी विजय होगी।

फिर भी भ्रम

किन्तु दूसरी ओर ऐसे राजनैतिक नेताओं की कमी नहीं है जो हिन्दू राष्ट्र के विचार को घोर साम्प्रदायिक और सेक्युलररिज्म के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं, यद्यपि यह भी सत्य है कि उनका यह कथन किसी न किसी राजनैतिक हेतु से प्रेरित रहता है।
लोकनायक जयप्रकाश यह कहते थे कि बंगलादेश और पाकिस्तान मिलाकर हम एक राष्ट्र है। हमारे राज्य अलग - अलग हो सकते हैं किन्तु राष्ट्रीयता हमारी एक है - भारतीय.
लेकिन पश्चिम बंगाल विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष कलीमुद्दीन शम्स यह कहते थे कि मुसलमान इस देश में अलग राष्ट्र है। और शम्स साहब ही नहीं आज भी औवेशी जैसे कई यह कहते पाये जाते हैं। यह सब सुनकर इस देश के लोगों में राष्ट्र , राज्य , हिन्दू , सेक्युलर आदि के सम्बन्ध में एक गहरा भ्रम उत्पन्न हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । और इस भ्रम को और अधिक बढ़ाने में कुछ बड़े - बड़े राजनैतिक नेता भी लगे हुए हैं. क्योंकि ऐसा करने से उनके वोट पकते हैं और उनकी कुर्सी सुरक्षित रहने की संभावना बढ़ जाती है। हानि अगर पहुँचती है तो हमारी राष्ट्रीय एकता को , आपसी सद्भाव को , मिलजुलकर काम करने के अपने राष्ट्रीय संकल्प को । पर कुर्सी के मोह के आगे इन राजनीतिज्ञों को उसकी क्या चिंता ?

लेकिन जो राष्ट्रभक्त है वो इस राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति चाहते हैं , इस देश को दुनिया का सबसे श्रेष्ठ देश बनाना चाहते हैं, वे इस प्रश्न का गहराई से विचार किये बिना नहीं रह सकते , क्योंकि यदि विचार स्पष्ट न हो, मार्ग साफ न हो , लक्ष्य स्थिर न हो और मन मिले हुए न हों तो कदम ठिठकेंगे, गति धीमी होगी, भटकने की सम्भावना बढ़ेगी। अतः गहराई से विचार जरूरी है।

हिन्दू- राष्ट्र -hindu-dharma-

हिन्दु राष्ट्र - एक अनादि अखण्ड प्रवाह


और इस आध्यात्कि चेतना का सर्वाधिक आविष्कार जहाँ की राष्ट्रीयता में हुआ है वह हिन्दू राष्ट्र इतिहास के प्रथम पन्ने पर ही एक पूर्ण विकसित राष्ट्र के रूप में झलकता हुआ हमें दिखता है । सबसे बड़े सेक्युलरवादी कहे जाने वाले पं. जवाहरलाल नेहरू ने ग्लिम्प्सेस आॅफ वल्र्ड हिस्ट्री में यह कहते हुए गौरव का अनुभव किया है कि इतिहास के उषाकाल से लेकर सीधे हमारे युग तक भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विशाल और अविच्छिन्न धारा को देखकर कौतूहल होता है, विस्मित होना पड़ा है।मातृभूमि के प्रति उत्कट आत्मीयता का भाव वैदिक काल में माता इयं , पुत्रो अहम् पृथिव्याःअर्थात् ये धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र है में प्रकट हो जाता है।

पुराण कहते हैं -       
                    ‘ उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
                                  वर्षंतद् भारतं नाम भारती यत्र संतति।।

मे अभिव्यक्त होकर मध्ययुग में बार्हस्पत्य शास्त्र के इस श्लोक में प्रकट होता है -

                                ‘ हिमालयात् समारभ्य यावदेन्दु सरोवरम्
                                  तद् देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।

प्रसंगवशात् यह श्लोक हिन्दूशब्द की व्युत्पत्ति का भी संकेत देता है जिसके अनुसार हिमालय का हिऔर इन्दुसरोवर का न्दुमिलकर हिन्दूबना है जबकि एक मान्यता के अनुसार वह सिन्धुका अपभ्रंश है जो पहले सिन्धु के आसपास के प्रदेशों में रहने वालों के लिए प्रयुक्त होकर कालान्तर में इस पूरे देश के निवासियों के लिए प्रयुक्त हो गया। दोनांे स्थितियों में हिन्दूइस धरती के बेटों के लिए प्रयुक्त हुआ है इसमें कोई सन्देह नहीं।

     राष्ट्रीयता के अनिवार्य घटक के रूप में मातृभूमि के प्रति भावात्मक सम्बन्ध की यह परम्परा ही नहीं, प्रत्यक्ष राष्ट्रदेव के साक्षात्कार का प्रमाण भी हमें अथर्ववेद इस वैदिक श्लोक में प्राप्त होता है -

                                    भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपोदीक्षामुदासेदुरग्रे।
                               ततो राष्ट्रं बलमोजश्र्व जातं तदस्मे देवा उपसन्नमन्तु।।

अर्थात् लोक कल्याण की इच्छा से प्रेरित होकर ऋषियों ने उग्र तपश्चर्या की जिससे बल और ओज से युक्त राष्ट्र का जन्म हुआ। अतः इस राष्ट्र-देवता की उपासना करें।


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हिन्दू नाम ही क्यों ?


राष्ट्र जीवन का यह अखंड प्रवाह जो पहले भारत नाम से जाना गया वही अर्वाचीन काल में हिन्दू नाम से प्रसिद्ध हुआ। जैसे गंगा का पावन प्रवाह भागीरथी , जाहनवी , हुगली आदि विभिन्न नाम धारण करता हुआ भी वही बना रहा और अपने प्रगतिपथ में अन्य अनेकों प्रवाहों को सम्मिलित करता हुआ और अधिक समृद्ध होता गया वैसे ही  हिन्दुराष्ट्र जीवन का प्रवाह अनेक नाम धारण करने पर भी एक ही जीवनधारा को इंगित करता रहा और अपने विकास क्रम में अनेकां प्रवाहों एवं प्रभावों को आत्मसात् करते हुए व उनसे समृद्ध होते हुए आज तक चला आया है। हिन्दू की जगह भारतीय कह देने से इस देश की राष्ट्रीयता का आशय नहीं बदलता । अतः ऐसे सुझाव देने वाले कि हिन्दू राष्ट्र की जगह भारतीय राष्ट्र कहना चाहिए यदि यह मानते हों कि ऐसा कहने से वे किसी अधिक उदात्त अवधारणा को प्रस्तुत कर रहे हैं, तो यह उनकी भूल है। आज दुष्प्रचार की आँधी में हिन्दूशब्द को छोड़ने का अर्थ है अंग्रेजों की उस कुटिल नीति के हाथों पराजय स्वीकार करना जिसने हिन्दूशब्द को केवल सम्प्रदायवादी बताकर उसके अर्थ का अनर्थ किया। यह स्वामी विवेकानन्द , महायोगी अरविन्द व लोकमान्य तिलक का अपमान होगा जिन्होंने स्पष्ट एवं असंदिग्ध शब्दों में इस राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र कहा। यह उन महात्मा गांधी को साम्प्रदायिकता की श्रेणी में बैठाना होगा जिन्होंने डंके की चोट पर कहा कि हिन्दुत्व सत्य की अनवरत खोज का ही दूसरा नाम है और यदि आज यह प्रयास कुण्ठित, निष्क्रिय और विकास के प्रति असंवेदनशील हो गया तो इसका कारण यह है कि हम थक गये है। ज्यों ही यह थकावट दूर होगी , हिन्दुत्व ऐसी समुज्ज्वल प्रभा से सम्पूर्ण विश्व में प्रस्फुटित होगा, जैसा शायद इसके पहले कभी नहीं हुआ।

हिन्दू राष्ट्र जीवन के प्रमुख सूत्र


जिस सांस्कृतिक आधार पर इस अति प्राचीन राष्ट्र की राष्ट्रीयता का भवन खड़ा किया गया है उसका प्रमुख सूत्र है विविधता में एकता। हिन्दू विचार ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि इस जगत् में प्रत्येक अस्तित्व की अपनी विशिष्ट भूमिका है और सृष्टि के विकासक्रम में उसका योगदान देने के लिए पूर्ण अवसर प्रदान करना जहाँ आवश्यक है , वहाँ इस सब विविधता में विद्यमान मूलभूत एकता की अनुभूति कराकर सबको एकता के सूत्र में पिरोना भी जरूरी है । इसलिए सब प्रकार की प्रवृत्तियों , गुणवत्ताओं, भावनाओं व क्षमताओं वाले लोगों को राष्ट्रजीवन में योग्य स्थान देते हुए समाज जीवन के लिए पोषक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने की ओर , हानिकारक प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने की ओर ध्यान दिया गया।

सृष्टि में कहीं विरोध नहीं है , सर्वत्र समन्वय है, क्योंकि सब कुछ एक ही सत्य तत्व का विस्तार है।इस अनुभूति में ऐसी ही व्यवस्थाएँ देने पर बल दिया गया जो विरोध पर नहीं , समन्वय पर आधारित हों। पश्चिमी सभ्यता की तरह हमारे यहाँ व्यक्ति , परिवार , समाज , राष्ट्र व विश्व को समकेन्द्रित वृतों के समान एक का विकास दूसरे असम्बद्ध और हित विरोधी न मानकर कुन्तल के समान एक का विकास दूसरे में माना गया।

व्यक्ति की आत्मा ही परिवार, समाज व राष्ट्र की सीढ़ियां चढ़ती हुई विश्वात्मा बनने की ओर अग्रसर होती है। प्रगति की इस दशा में मनुष्य को बढ़ना ही हमारे यहाँ की समस्त रचनाओं का लक्ष्य रहा है, भले ही अज्ञान में पड़कर हमने उन्हें विकृत क्यों न कर दिया हो।
सत्य एक होते हुए भी मनुष्य अपनी सीमित क्षमता के कारण उसका सर्वांश में आकलन नहीं कर सकता , उसके एक अंश का ही अनुभव कर सकता है। इसलिए सत्य की उसकी अनुभूति अन्यों की अनुभूति से यों भिन्न हो सकती है एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति। अर्थात् सत्य एक है पर विद्वान उसे भिन्न - भिन्न ढंग से प्रकट करते हैं। किन्तु केवल अपनी अनुभूति को ही सत्य और अन्यों की अनुभूतियों को असत्य कहना हमारे यहाँ गलत माना गया।
माना यही गया कि स्वयं की अनुभूति को सत्य मानने का पूरा अधिकार होते हुए भी अन्यों की अनुभूतियों को भी सत्य का ही दूसरा पहलू मानकर उनका समादर करना चाहिए । इसी में से सर्वमत समादर का तत्व निकला जो हमारे राष्ट्रजीवन का एक अति उज्ज्वल व्यवहार तत्व है।
हिन्दू राज्य भी ऐसे थे

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि राजतंत्र बदलते रहने पर भी राष्ट्र नहीं बदलता तथा वही राज्यतंत्र देश की प्रगति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है जो राष्ट्रमानस के अनुकूल हो । राजतंत्र का स्वरूप एकतांत्रिक , लोकतांत्रिक , सम्प्रदाय - सापेक्ष , सम्प्रदाय - निरपेक्ष आदि अनेक प्रकार का हो सकता है। हिन्दू राष्ट्र की प्रकृति के अनुरूप लोकतांत्रिक और सम्प्रदाय निरपेक्ष राज्य - पद्धति ही सर्वाधिक उपयुक्त है। प्राचीन काल में राजतंत्र या गणतंत्र कोई भी व्यवस्था राज्यों की क्यों न रही हो - सम्प्रदाय निरपेक्षता उनका अनिवार्य लक्षण रहा है। राज्य का कोई एक सम्प्रदाय का प्रचार करना हिन्दुओं के राज्य - सिद्धान्तों के विपरीत रहा है और भारत के हिन्दू राज्यों का इतिहास सम्प्रदाय निरपेक्ष राज्य-व्यवस्था का जीता-जागता प्रमाण है। विजयनगर के हिन्दू राज्य अथवा पंजाब के सिख वीरों के राज्य में मुसलमानों को पूरी स्वतन्त्रता को पूरी स्वतंत्रता व समानता प्राप्त थी। छत्रपति शिवाजी की हिन्दू पदपादशाही में भी मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। कट्टर मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इस बात की प्रशंसा की है कि किस प्रकार अत्यन्त आदर भाव रखते थे और इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि मुस्लिम बच्चों व वृद्धों पर कोई हाथ न उठाये । और यह सब उस समय जब इससे बिल्कुल उल्टा व्यवहार मुस्लिम बादशाहों द्वारा हिन्दुओं के साथ किया जाता था।

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राष्ट्रीयता से आगे


हिन्दू राज्य कभी सम्प्रदाय - सापेक्ष नहीं रहा क्योंकि सम्प्रदाय सापेक्ष राज्य का अर्थ है धर्मगुरूओं द्वारा साम्प्रदायिक कानूनों के आधार पर चलाया जाने वाला राज्य । रोम के पोप और इस्लाम के खलीफाओं के समान राज्य चलाने की व्यवस्था हिन्दुस्थान में कभी नहीं रही। ऐसा होते हुए भी यह कहना कि हिन्दु राष्ट्र , जिसकी अस्मिता उदात्त जीवनमूल्यों के आधार पर सिद्ध हुई है सम्प्रदाय - निरपेक्ष राज्य व्यवस्था का विरोध करेगा , अपना अज्ञान प्रगट करना ही है। सम्प्रदाय - निरपेक्ष व्यवस्था के विरोध की बात तो दूर , हिन्दुराष्ट्र - जीवन के उदात्त तत्व जो आज उन राष्ट्रों का भी मार्गदर्शन कर सकते है जो दुनिया की सिकुड़ती दूरियों के बीच इस तीव्र आर्थिक और वैज्ञानिक प्रतियोगिता के युग में अपनी जीवनावश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अधिक व्यापक सहयोग के लिए बाध्य हुए हैं। यदि आज के राष्ट्रसमूह कल के विश्व प्रशासन की पूर्व भूमिका है और यदि विविधता को बलात् एकरूपता लादकर नष्ट नहीं करना है और प्रत्येक राष्ट्र को सम्मान के साथ अपनी भूमिका निभाने की स्वतंत्रता देना है तो उसके लिए हिन्दु राष्ट्र जीवन को छोड़कर और कौन सा तात्विक आधार व अनुकरणीय उदाहरण प्राप्त होगा?









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