स्वतंत्रता का लक्ष्य -
विदर्भ के सभी छोटे - बड़े कार्यकत्र्ताओं की यह तीव्र इच्छा थी कि नागपुर का अधिवेशन लोकमान्य तिलक की अध्यक्षता में हो। किन्तु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी, क्योंकि उसके पहले ही 1 अगस्त , 1920 को मृत्यु ने उन्हें छीन लिया। इस दुःखद समाचार के नागपुर पहुँचने पर यह प्रश्न उठा कि अब अध्यक्ष कौन बने ? नागपुर के गरमदलीय नेताओं ने पाण्डिचेरी में साधना कर रहे पुराने क्रान्तिकारी श्री अरविन्द घोष को निमन्त्रित करने का निश्चय किया। डाॅ. मुंजे और डाक्टर हेडगेवार अरविन्द बाबू से मिलने पाण्डिचेरी गये और उनसे अध्यक्षता स्वीकार करने का बहुत आग्रह किया। किन्तु आध्यात्मिक साधना का मार्ग अपना लेने वाले अरविन्द बाबू पुनः राजनीति में आने के लिए नहीं हुए । तब कांग्रेस के नरमपंथियों में से ही श्री विजयराघवाचारी को अध्यक्ष पद के लिए चुना गया। डाक्टर साहब को यह नाम पसंद नहीं था, किन्तु एक बार चयन हो जाने के बाद उन्होंने अधिवेशन की सफलता के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। अधिवेशन में आये साढ़े चैदह हजार प्रतिनिधियों की सुख - सुविधा और अन्य व्यवस्थाएँ सँभालने के लिए डाॅ. ल. वा. परांजपे और डाॅ. हेडगेवार के नेतृत्व में एक स्वयंसेवक दल का गठन किया गया था । यह सारी जिम्मेदारी उन्होंने इतने अच्छे ढंग से निभायी कि वे सभी की प्रशंसा के पात्र बन गये।
इस अधिवेशन में खिलाफत आन्दोलन की सहायता करने का प्रस्ताव पारित हुआ। सच पूछा जाय तो मुसलमानों के सहयोग को आवश्यकता से अधिक महत्व देने की गांधी जी की निती डाक्टर साहब का मान्य नहीं थी। अपनी बात उन्होंने गांधी जी तक पहुँचायी भी। डाक्टर साहब ‘सम्पूर्ण स्वतंत्रता’ शब्दों के प्रयोग का अत्यधिक आग्रह करते थे। उन्होने प्रयत्नपूर्वक यह प्रस्ताव भी स्वागत - समिति से पारित करवाकर विष्य - समिति के पास भिजवाया था कि ‘‘ हिन्दुस्थान में लोकतंत्र की स्थापना कर पँूजीवादी राष्ट्रों के चंगुल से देश को मुक्त कराना ही कांग्रेस का ध्येय है।’’ किन्तु तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं को विचारों की इतनी ऊँची छलांग रास नहीं आयी। अतः ये दोनों ही सुझाव रद्दी की टोकरी में डाल दिये गये।
जब डाॅक्टर साहब जेल गए -
डाक्टर साहब का यह मत था कि यदि किसी संस्था में काम करने का निश्चय किया है तो मतभेदों के होते हुए भी उस संस्था के निर्णयों को सिर- आँखों पर स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने इसका पालन किया। गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ‘ खिलाफत’ के समर्थन में असहयोग आन्दोलन से स्वराज्य निकट आयेगा या देश को और कोई विशेष लाभ होगा। फिर भी यह सोचकर कि इससे देश में जागृति - निर्माण करने का कम से कम एक अवसर तो मिलेगा , वे आन्दोलन में कूद पड़े और तूफानी दौरा कर अपने उग्र भाषणों और कार्यो से उन्होंने विदर्भ के ग्रामीण भाग में हलचल मचा दी ।
इस कार्य के कारण उन पर राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया। गांधी जी का मत था कि आन्दोलन में जिन पर मुकदमें चलाये जायंे वे अपना बचाव न कर सजा स्वीकार कर लें। किन्तु डाक्टर साहब ने अदालत के मंच को भी राष्ट्रीय विचारों के प्रचार का माध्यम बनाने हेतु मुकदमा लड़ा और सरकारी रिपोर्टरों के होश ठिकाने लगा दिये। अदालत में दी गयी उनकी सफाई उग्र देशभक्ति से इतनी सराबोर और इतनी तीखी भाषा में थी कि न्यायाधीश को भी कहना पड़ा कि उनका ‘‘ बचाव का भाषण मूल भाषण से भी अधिक राजद्रोहात्मक है।’’ डाॅ. साहब को एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा हुई जिसे उन्होंने प्रसन्नता से काटा।
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