GURU JI |
19 फरवरी सन् 1906 ई. में नागपुर में जन्मे श्री माधव सदाशिव गोलवलकर अपने माता पिता की नौ सन्तानों मे से एकमात्र जीवित पुत्र थे। ऐसा लगता है कि भाग्य ने ही एक विशेष उद्देश्य के लिए उन्हें जीवित रखा। तभी तो बाद के वर्षों में वे राष्ट्र के आशा - केन्द्र के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक बने।
बाल्यकाल से ही मेधावी रहे माधवराव नागपुर विश्वविद्यालय के हिस्लाॅप काॅलेज से स्नातक हुए । तत्पश्चात् उन्होंने वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.एससी. उत्तीर्ण की। उस अवधि में वे उस काल के प्रसिद्ध हिन्दू नेता और विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी के प्रेरणादायक व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। बाद में दो वर्ष तक वे वहीं अध्यापक रहे। उनके प्रिया शिष्यगण आदर से उन्हें ‘‘ गुरूजी ’’ कहने लगे और यही उपनाम आगे भी उनसे जुड़ा रहा। जब वे अध्यापक थे तभी अपने एक छात्र श्री प्रभाकर बलवन्त ( भैयाजी ) दाणी की प्रेरणा से जो आगे चलकर संघ के कार्यवाह बने, वे संघ में प्रविष्ट हुए।
श्री गुरूजी सन् 1933 में नागपुर लौटे आये और यहां वे संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार के चुम्बकीय व्यक्तित्व से आकर्षित हुए। इस संपर्क ने शीघ्र ही उनका ऐसा कायापलट किया, जैसे नरेन्द्र का श्री रामकृष्ण से मिलने पर हुआ था। अविवाहित जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेकर उन्होने विधि का अध्ययन किया तथा कुछ समय तक वकालत की । परन्तु अधिकांश समय और शक्ति वे संघ की गतिविधियों में लगाने लगे।
किन्तु अपने व्यक्तिगत व्यवसाय या सुख - सुविधा से ही बचे रहने की उनकी प्रवृति ही नहीं थी। उनकी आंतरिक आकांक्षा के अनुसार , आध्यात्मिक साधना हेतु वे रामकृष्ण मठ क सारगाछी आश्रम चले गये। वहां वे कुछ महीने रहे और श्री रामकृष्ण के अनुयायी तथा स्वामी विवेकानन्द के गुरू - भाई स्वामी अखंडानन्द से मंत्र - दीक्षा ग्रहण की । उनके गुरू ने अपने अंतिम दिनों में उन्हें आश्रम के बाहर रहकर समाज की सेवा में लगने का आदेश किया । श्रीगुरूजी सन् 1937 ई. में नागपुर लौट आए और उसके बाद पूरे मन से संघ के कार्य में जुट गए। डाॅ हेडगेवार ने बड़ी बारीकी से उन्हें परख लिया और नागपुर के तृतीय वर्ष के प्रशिक्षण वर्ग के सर्वाधिकारी का महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा तथा फिर सरकार्यवाह , ऐसे बढ़ाते हुए दायित्वों को सौंपने लगे।
श्री गुरूजी की बौद्धिक एवं मानसिक क्षमता के बारे में अपने वरिष्ठ सहयोगियों से परामर्श करने के बाद 1940 ई. में डाॅ. साहब ने अपने निधन के बाद सरसंघचालक का दायित्व श्री गुरूजी को सौंपे जाने का निश्चय प्रकट कर दिया।
श्री गुरूजी ने 33 वर्षों के लम्बे समय तक संगठन में मार्गदर्शक और दार्शनिक की भूमिका निभाई। अनवरत एवं अथक प्रयास करते हुए वे प्रत्येक प्रांत का वर्ष में दो बार भ्रमण करते थे। इस प्रकार कम से कम साठ बार उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। संभवतः आज भी यह अपने आप में एक अद्वितीय कीर्तिमान है । श्री गुरूजी ने असम और केरल जैसे दूरस्थ प्रांतों तक कार्य विस्तार को तीव्र और ऊर्जावान गति प्रदान की । जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित हिन्दू पुनरूत्थान अभियान के कर्णधार के नाते बागडोर संभाली, तब हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना केवल एक कोरा चिंतन मात्र थी। परन्तु , अपनी असीम प्रतिभा के बल पर उन्होंने हिन्दू राष्ट्र की ऐतिहासिक , सामाजिक पृष्ठभूमि और शुद्ध अवधारणा अकाट्य रूप में प्रस्तुत की । इस प्रकार उन्होंने संघ के वैचारिक आधार को सामान्य ग्रामीण से लेकर नगरीय तक की समझ के अनुकूल बनाया। अपनी वाणी और कृति से उन्होंने शाखा-पद्धति को बारीकी से परिपूर्ण बनाया 1940 से पूर्व पूर्णकालिक प्रचारकों की परम्परा कम थी। उसे तेजी से बढ़ाकर पेरे देश में शाखाओं के व्यवस्थित विस्तार के लिए एक सशक्त अंग के रूप में स्थापित करने का भी श्रेय श्रीगुरूजी को है।
जब गुरूजी ने संघ की बागडोर संभाली , उस समय देश की स्थिति बहुत नाजुक बनी हुई थी। सर्वत्र स्वराज्य की चर्चा चल थी। संघ जैसे संगठन की प्रासंगिकता पर अनेक शंकाएं और जिज्ञासाएं उठाई जा रही थी। श्री गुरूजी शांति से और सुसंगत ढंग से समझाते थे कि किस प्रकार एक सुसंगठित समाज ही स्वराज्य को सुरक्षित रख कर उसके फलों का आस्वादन कर सकता है । उन्होने यह भी समझाया कि राष्ट्रीयता की सही अवधारणा क्या है तथा स्वराज्य के लिए वह शुद्ध दर्शन ही प्रेरक बन सकता है। देशव्यापी दंगो और हिन्दुओं के ग्राम - सम्पत्ति एवं मानबिंदुओं पर आक्रमणों की भयावह परिस्थिति में श्री गुरूजी वीरोचित मुद्रा में दृष्टिगोचर हुए। उन्होंने अविराम पूरे देश की यात्रा की - विशेषतः पंजाब और सिन्ध की - और जनता के मनोबल को दुर्दम्य बनाया तथा त्याग और बलिदान की चेतना जगाई। उनके आह्वान का स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार प्रतिसाद दिया और नारकीय इस्लामिक उन्माद से हिन्दू भाइयों और बहिनों के प्राण व सम्मान की रक्षा की, इसकी रोमांचक गाथा श्री गुरूजी के प्रेरणादायक नेतृत्व की उज्ज्वल साक्षी है।
श्री गुरूजी के फौलादी नेतृत्व की परीक्षा एक बार फिर हुई, जब केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने , तुच्छ दलीय उद्देश्य से , महात्मा गांधी की हत्या का फायदा उठाकर सन् 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया, अत्यंत भड़काऊ और विद्वेषपूर्ण प्रचार किया। श्री गुरूजी की गिरफ्तारी के विरूद्ध संघ बड़ी निर्भीकता से उठ खड़ा हुआ और सत्याग्रह के उन्मेष की वेला में सम्पूर्ण देश में स्वयंसेवकों की गिरफ्तारियां और यातनाओं ने राष्ट्र के अंतःकरण को झकझोर दिया। फलतः सरकार को प्रतिबंध उठाना पड़ा।
किन्तु इस विजय के पश्चात् स्वयं स्फूर्त प्रचण्ड जन - स्वागत के बाद भी श्री गुरूजी ने अपना संयम बनाए रखा और स्वयंसेवकों से आग्रह किया कि वे भावावेश में आकर विरोध एवं विद्वेष के शिकार न हों तथा नवार्जित स्वातंत्रय को सुदृढ़ करने में राष्ट्र के कर्णधारों का सहयोग करें । उदाहरण के रूप में 1947 के देश - विभाजन के बाद जब कश्मीर का भाग्य अंधकार में लटक रहा था तब श्री गुरूजी, सरदार पटेल के कहने पर महाराजा से मिले और भारत में अविलम्ब विलय के लिए उनको तैयार किया। आगे फिर श्री लालबहादुर शास्त्री के निमंत्रण पर 1965 में पाक - आक्रमण के समय सर्वदलीय बैठक में भाग लिया और प्रभावी प्रतिरोधात्मक सही रणनीति निर्धारित करने में सहायता की।
अब हिन्दू राष्ट्र के नवोत्थान की संकल्पना को मूर्त रूप देने में संघ की नवीन भूमिका स्पष्ट शब्दों में निरूपित करने का कठिन कार्य सामने आया। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत - अखिल भारतीय विद्यार्थी , भारतीय मजदूर संघ , विश्व हिन्दू परिषद , भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती तथा सेवा कार्य जैसे अनेक संगठनों का निर्माण हुआ। आगे चलकर आपने गोवंश जैसे राष्ट्रीय मान बिन्दुओं के प्रति राष्ट्र के अंतःकरण में सोई हुई श्रद्धा जगाने के लिए जन - जागरण के माध्यम से एक विशाल अभियान प्रारम्भ किया। श्री गुरूजी की ही प्रेरणा से संघ के स्वयंसेवक 1963 में स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी के ऐतिहासिक अवसर पर हिन्दू पुनरूत्थान का उनका ओजस्वी संदेश चारों ओर प्रसारित करने और कन्याकुमारी के समुद्र में भव्य विवेकानंद शिला स्मारक खड़ा करने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ कूद पड़े।
भारत के सर्वसाधारण समाज तथा प्रबुद्ध वर्ग से समान रूप से निकट संपर्क होने के कारण श्रीगुरूजी राष्ट्र की धड़कन से सदैव परिचित रहते थे। इस कारण कई बार आने वाली घटनाओं का उनको पूर्वाभास हो जाता था। जिसकी वह शासकों तथा समाज को तथा लोगों को चेतावनी भी देते रहते थे। छठी दशाब्दी के प्रारम्भ में जब सरकार ने अपनी पूर्व वचन - बद्धता के कारण भाषावार प्रान्त रचना के लिए एक त्रिसदस्यीय आयोग की नियुक्ति की , उस समय श्री गुरूजी ने अकेले ही इसके संभाव्य परिणामों के बारे में चेतावनी दी और एकात्मक शासन प्रणाली के लिए आग्रह किया। उसी समय उत्तर - पूर्वी राज्यों में फैली अशांति को लेकर उन्होंने ईसाई मिशनरियों की उन राष्ट्रविघातक गतिविधियों की शासनाधीशों को चेतावनी दी, जिनके कारण आज देश को भारी मूल्य चुकाना पड़ रहा है। पांचवीं दशाब्दी के मध्य में जब हमारे राजनेता ‘‘ हिन्दी - चीनी भाई भाई ’’ का राग अलाप रहे थे तब गुरूजी ने सार्वजनिक रूप से कितना सही परामर्श दिया था कि इस थोथे शब्द - जाल के धोखे में न आएं। अपनी सीमाओं की सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था करें। उन्होंने पहले हीे चीन के दुष्ट मंसूबो को समझ लिया था कि वह हमको भुलावे में रखकर सीमा - पार से हमारे ऊपर आक्रमण करना चाहता है । सन् 1961 की जनगणना से पहले जब पंजाब समस्या प्रारंभिक अवस्था में थी, उनका ही एकमात्र साहसपूर्वक , विवेकपूर्ण आह्वान था कि सहजधारी हिन्दू अपनी मातृभाषा पंजाबी लिखाएं तथा सभी सिख बंधु अपने को हिन्दु लिखाएं।
आज यह हम देख सकते हैं कि उनकी प्रत्येक चेतावनी ‘ भविष्यवाणी ’ सिद्ध हुई तथा उनकी अवहेलना के कैसे दुष्परिणाम निकले है। श्री गुरूजी की प्रथम चिंता का विषय हमेशा यही रहा कि हिन्दू समाज में आंतरिक विघटन एवं विभेद समाप्त हों। शंकर , मध्व , रामानुज तथा अन्य पीठाधिष्ठित धर्माचार्यों को सहमत कर लेने वाले , उनके अनुनय-विनय का ही परिणाम था कि उन्होंने पहले कर्नाटक विश्व हिन्दू परिषद के उड्डपी सम्मेलन में तथा बाद में प्रयाग के 1996 में हुए विश्व हिन्दू सम्मेलन में सर्वसम्मति से छुआछूत , जातिवाद , वर्गवाद आदि बुराइयों को समाप्त करने की घोषणा की और हिन्दू समाज का समरसतापूर्ण एकता के लिए आह्वान किया।
इस प्रकार हिन्दू राष्ट्र के नवोत्थान के आदर्श के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता होने के कारण उन्होंने एक महान ध्येय से अनुप्राणित , अनुशासित विशाल संगठन खड़ा करने में सफलता पाई। अपनी मृत्यु से पूर्व श्री बालासाहब देवरस ( मधुकर दत्तात्रेय देवरस ) जी के सुयोग्य हाथों में अपना उत्तराधिकार लिखित रूप में उन्होंने सौंप दिया।
5 जून 1973 को उनकी जीवन लीला समाप्त हुई । वह अपने पीछे छोड़ गये संघ की सतत विकासोन्मुखी प्रेरणादायक परंपरा। संक्षेप में उनका गतिशील कर्तव्य उनके आशा और विश्वास से युक्त अंतिम संदेश में मूर्तिमन्त हो उठा, जो उन्होने 1973 की नागपुर की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के सम्मुख दिया कि अंततोगत्वा संघ अपने उद्देश्य में सफल होकर रहेगा। उनके शब्द थे - ‘‘ सर्व दूर विजय ही विजय है। ’’
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