शनिवार, 7 मार्च 2020

Rashtriya Swayamsevak Sangh Ke Sansthapak - 1

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गत 95 वर्षों में न केवल देशव्यापी हुआ है अपितु भारत के राष्ट्रजीवन में उसने अपना एक महत्वपूर्ण स्थान भी बना लिया है। देश के सामने विद्यमान समस्याओं का राष्ट्रीयता की भावात्मक अवधारणा के निकष पर निदान करने की संघ की परम्परा होने के कारण उसके मत को प्रबुद्ध लोकमानस में विशेष महत्व भी प्राप्त हुआ है। किन्तु इतना सब होते हुए भी संघ के संस्थापक डाॅक्टर केशव बलिराम हेडगेवार का नाम एवं उनका जीवन संघ-बाह्य क्षेत्र में अल्पज्ञात ही है। यह डाॅक्टर हेडगेवार जी के आत्मविलोपी स्वभाव का ही स्वाभाविक परिणाम है।
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RASHTRIYA SWAYAMSEVAK SANGH FOUNDER
यह लेख डाक्टर हेडगेवार जी जीवन , विचार एवं कृतित्व के सम्बन्ध में समाज को अवगत कराने हेतु एक प्रयास है। डाॅक्टर जी के व्यक्तित्व में बीजरूप में विद्यमान गुणों एवं उनके द्वारा की गयी कृतियों की अभिव्यक्ति संघरूपी विशाल वटवृक्ष के अंग-प्रत्यंग में किस प्रकार हुई है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम आज केवल भारत में ही नहीं दुनिया भर में फैल चुका है। सभी मानते है कि आर. एस. एस. हिन्दुओं का एकमेव प्रभावी संगठन है। संघ के विरोधी भी इस बात से इन्कार नहीं कर पाते कि भारत के राष्ट्रजीवन में संघ का अपना एक विशेष स्थान है। तब स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि इस संगठन का प्रारम्भ कब, किसने , कहाँ और क्यों किया ? 

संघ के जन्मदाता का जीवन कैसा था? ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले इस संगठन का निर्माण करने कि प्रेरणा उन्हें कहाँ से मिली ? संघ आरम्भ में जैसा था अव भी वैसा ही है या उसमें कोई परिवर्तन हुआ है? आदि । 
संघ निर्माता के जीवन और कार्य के सम्बन्ध में कुछ विचार कर लिया जाये।

जन्मजात देशभक्त - 

      डाॅ. हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 ई. को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन नागपुर के एक गरीब वेदपाठी परिवार में हुआ था। जन्म के समय किसी भी प्रकार की अनुकूलता उन्हें प्राप्त नहीं थी। पुरोहिती कर आजीविका चलाने वाला उनका परिवार नागपुर की एक पुरानी बस्ती में निवास कर रहा था। घर का वातावरण आधुनिक शिक्षा और देश के सार्वजनिक जीवन से सर्वथा अछूता था। किन्तु जन्म से ही भगवान ने डाॅ. साहब को एक अनोखी देन दी थी जिसके बल पर वे अपने जीवन को कर्तृव्यवान, परिस्थिति को बदलने की क्षमता रखने वाला और आदर्श बना सके। यह ईश्वरीय देन थी - जन्मजात देशभक्ति और समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता। उमर के आठवें वर्ष में ही उसका परिचय केशव के संगी - साथियों , पड़ोसियों और घर के लोगों को मिलने लगा था। इस उमर में ही उनके मन में ऐसा भव्य विचार आया कि इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया का राज्य पराया है और उसके साठ साल पूरे होने की खुशी में जो मिठाई बाँटी गयी उसे खाना हमारे लिए लज्जा की बात है , और मिठाई का वह दोना उन्होंने एक कोने में फेंक दिया। चार साल बाद सातवें एडवर्ड का राज्याभिषेक - समारोह जब बड़े ठाठ - बाट से मनाया गया तब उसमें भी केशव ने भाग नहीं लिया । बाल केशव ने कहा - ‘‘ पराये राजा का राजा का राज्यभिषेक - समारोह मनाना हम लोगों के लिए घोर लज्जा की बात है । ‘‘ 
विद्यालय में पढ़ते समय नागपुर के सीतावर्डी किले पर अंग्रेजों के झण्डे ‘ यूनियन जैक’ को देखकर उन्हें बड़ी बेचैनी होती थी और मन में एक दिन एक अनोखी कल्पना उनके मन में उभरी कि किले तक सुरंग खोदी जाय और उसमें से चुपचाप जाकर उस पराये झण्डे को उतारकर उसकी जगह अपना झण्डा लगा दिया जाय । तदनुसार उन्होने अपने मित्रों सहित सुरंग खोदने का काम शुरू भी किया था। लेकिन उनके गुरू जी ने जब सुरंग का काम देखा तो उन्हें रोक दिया । 

देशभक्ति - जीवन का स्वर 

यह जो क्रियाशाील देशभक्ति का भाव डाॅक्टर हेडगेवार के बचपन में प्रकट हुआ, वही उनके जीवन में अखण्ड रूप से बना रहा और उनके सारे जीवन को प्रकाशित करता रहा। वे जब नागपुर के नीलसिटी हाईस्कूल में पढ़ रहे थे, तभी अंग्रेज सरकार ने कुख्यात रिस्ले सक्र्युलर जारी किया। इस परिपत्र का उद्देश्य विद्यार्थियों को स्वतन्त्रता के आन्दोलन से दूर रखना था। नेतृत्व का गुण केशवराव हेडगेवार में विद्यार्थी अवस्था से ही था। शाला के निरीक्षण के समय उन्होंने प्रत्येक कक्षा में निरीक्षक का स्वागत ‘ वन्दे मातरम्‘ की घोषणा से कराने का निश्चय किया और उसे सफलता के साथ पूरा कर दिखाया। विद्यालय में खलबली मच गयी , मामला तूल पकड़ गया और अन्त में उस सरकार - मान्य विद्यायल से उन्हें निकाल दिया गया। फिर  यवतमाल की राष्ट्रीय शाला में उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई की , किन्तु परीक्षा देने के पूर्व ही वह शाला भी सरकारी कोप का शिकार हो गयी। इसलिए उन्हें परीक्षा देने अमरावती जाना पड़ा । 
जब कोई राष्ट्र गुलाम होता है तब देशभक्ति से जलते अन्तःकरण बड़े ही संवेदनशील हो जाया करते हैं। केशव निर्भीक और साहसी थे तथा देश के लिए किसी भी प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार थे। उन्होंने सन् 1910 में कलकत्ते के नेशनल मेडिकल काॅलेज में डाक्टरी की शिक्षा के लिए प्रवेश लिया ताकि उनका बंगाल के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क आ सके और बाद में वे वैसा ही कार्य विदर्भ में कर सकें । वहाँ पुलिनबिहारी दास के नेतृत्व में अनुशीलन समिति नामक क्रांतिकारियों की एक टोली काम कर रही थी। इस समिति के साथ केशवराव का गहरा सम्बन्ध स्थापित हुआ और वे उसके अंतरंग में प्रवेश पा गयें।
                                                                                        


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