"दूसरो की गलतियों से सीखो अपने ही ऊपर प्रयोग करके सीखने को तुम्हारी आयु कम पड़ेगी."
2)"किसी भी व्यक्ति को बहुत ईमानदार (सीधा साधा ) नहीं होना चाहिए ---सीधे वृक्ष और व्यक्ति पहले काटे जाते हैं."
3)"अगर कोई सर्प जहरीला नहीं है तब भी उसे जहरीला दिखना चाहिए वैसे डंस भले ही न दो पर डंस दे सकने की क्षमता का दूसरों को अहसास करवाते रहना चाहिए. "
4)"हर मित्रता के पीछे कोई स्वार्थ जरूर होता है --यह कडुआ सच है."
5)"कोई भी काम शुरू करने के पहले तीन सवाल अपने आपसे पूछो ---मैं ऐसा क्यों करने जा रहा हूँ ? इसका क्या परिणाम होगा ? क्या मैं सफल रहूँगा ?
" 6)"भय को नजदीक न आने दो अगर यह नजदीक आये इस पर हमला करदो यानी भय से भागो मत इसका सामना करो ."
7)"दुनिया की सबसे बड़ी ताकत पुरुष का विवेक और महिला की सुन्दरता है."
8.) "काम का निष्पादन करो , परिणाम से मत डरो."
9)"सुगंध का प्रसार हवा के रुख का मोहताज़ होता है पर अच्छाई सभी दिशाओं में फैलती है."
10)"ईश्वर चित्र में नहीं चरित्र में बसता है अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ."
11) "व्यक्ति अपने आचरण से महान होता है जन्म से नहीं."
12) "ऐसे व्यक्ति जो आपके स्तर से ऊपर या नीचे के हैं उन्हें दोस्त न बनाओ,वह तुम्हारे कष्ट का कारण बनेगे. सामान स्तर के मित्र ही सुखदाई होते हैं ."
13) "अपने बच्चों को पहले पांच साल तक खूब प्यार करो. छः साल से पंद्रह साल तक कठोर अनुशासन और संस्कार दो .सोलह साल से उनके साथ मित्रवत व्यवहार करो.आपकी संतति ही आपकी सबसे अच्छी मित्र है."
14) "अज्ञानी के लिए किताबें और अंधे के लिए दर्पण एक सामान उपयोगी है ."
15) "शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है. शिक्षित व्यक्ति सदैव सम्मान पाता है. शिक्षा की शक्ति के आगे युवा शक्ति और सौंदर्य दोनों ही कमजो
शनिवार, 21 मार्च 2020
जन्मदिन कैसे मनाया जाए How To Celebrated The Birthday
जिस दिन हम पैदा हुए उस घर परिवार में हर तरफ खुशी का माहौल और मां पिता जी के लिए एक नया एहसास और खुशी जिसे शायद बयां करने के शब्द भी उनके पास ना हो. वही हो जाता है हमारा जन्मदिन उस दिन को जन्मदिन के रूप हर साल आनन्द करते है। लेकिन आज कल युवा उस दिन अपने मां पिता का आर्षीवाद लेने के बजाय माॅडर्न दिखने के चक्कर में ढ़ोग करते फिरते है , लेकिन इस सब के पीछे माता पिता भी जिम्मेदार हैं क्यूँकि वह अपने बच्चे बालपन से ही उस अपने संस्कारों की बजाय अंग्रेजियत लाद देते है.
इस धरती पर अवतरण के उस दिन को जन्मदिन के रूप में मनाते है और जन्मदिन की उस खुशी में हम पाश्चात्य सभ्यता के चकाचैंध में खो जाते है
जिस दिन मेरा जन्मदिन होता था मां सुबह ही पैर छूकर बड़ो का आशीर्वाद लेने को कहती , वैसे तो मेरे परिवार सभी जल्दी जागना, अपने से बड़ो को प्रणाम करना यह सभी कार्य एक नियमितता से होते है , लेकिन जिस दिन मेरा जन्मदिन होता था वो दिन कुछ खास हो जाता है।
सुबह जगकर बड़ो का आशीर्वाद लेने के बाद नित्य क्रिया स्नानादि से निवृत होकर मां पिता के साथ मन्दिर जाकर पूजा अर्चना करता उसके बाद कुछ दान करना और फिर मां और दादी ,बहन , बुआ आदि मेरा तिलक करती और घर में दीप जलाकर उस सर्वशक्तिशाली ईश्वर का धन्यवाद और मेरे उज्जवल भविष्य की कामना करते थे। यह एक बहुत सुन्दर एहसास होता था।
हमारी इस पद्धति को बहुत से लोग पिछड़ापन के कहते लेकिन हमें क्या फर्क पडना था। जन्मदिन के दिन दान देने के संस्कार ने मेरे अन्दर असहायांे की मदद की जो भावना उत्पन्न की वो मुझे हमेशा सुकून देती है।
लेकिन आजकल के माहौल जन्मदिन की पार्टी के नाम पर हजारों रूपये उड़ा देते , नयेपन के नाम पर शराब , सिगरेट जैसे अन्य नशों का सेवन करते है। और फिर चरित्र का पतन करते है । और फिर कहते है हम तो विकसित हो गये।
एक बार की एक घटना जो मेरे सामने घटी की एक लडकी को 4 लड़के जबरदस्ती गाड़ी में बिठा रहे थे तो इस घटना को देखने वालों कुछ लोगो ने पुलिस को सूचना करदी जब पुलिस उस स्थान पर पहुंची और उन लोगो को गिरफ्तार करने लगी तो उनमें एक लड़के बताया कि यह हमारी दोस्त है और मेरे जन्मदिन की पार्टी थी और इसने उस चक्कर में शराब ज्यादा पी ली और अब गाड़ी में बैठने से मना कर रही थी तो हम इस बिठा रहे थे, पुलिस उन सभी के मां पिता जी को सूचना कर बुलवाया।
लेकिन सोचिए ? ये कैसा जन्मदिन की खुशी मनाना है जब मां बाप थाने में अपने बच्चों को देखा होगा तो क्या सोचा होगा , कितनी शर्मिन्दगी उठायी होगी । लेकिन आज युवा पीढ़ी विकास के पथ पर चलने की अपेक्षा विनास के राह अपना रही है।
इसलिए मैं यह सोचता हूँ कि अपने जन्मदिन पर हमें अपनी भारतीय पद्धति से जन्मदिन मनाना चाहिए ।
हम सभी को अपना जन्मदिन मनाने का बड़ा शौक होता है और उनमें उस दिन बड़ा उत्साह होता है लेकिन अपनी परतंत्र मानसिकता के कारण हम उस दिन भी अपने और अपने बच्चे के दिमाग पर अंग्रेजियत की छाप छोड़कर अपने साथ, उसके साथ व देश तथा संस्कृति के साथ बड़ा अन्याय कर रहे है।
जन्मदिन पर हम ‘ केक ’ बनवाते है तथा जन्म को जितने वर्ष हुए हों उतनी मोमबत्तियाँ ‘केक’ पर लगवाते है। उनको जलाकर फिर फूँक मारकर बुझा देते हैं।
जरा विचार तो कीजिये कि हम कैसी उल्टी गंगा बहा रहे है ! जहाँ दीये जलने चाहिए वहाँ बुझा रहे हैं! जहाँ शुद्ध चीज खानी चाहिए वहाँ फँूक मारकर उड़े हुए थूक से जूठे हुए ‘केक’ को हम बड़े चाव से खाते हैं! जहाँ हमें गरीबी को अन्न खिलाना चाहिए वहीं हम बड़ी पार्टियों का आयोजन कर व्यर्थ पैसा उड़ा रहे हैं!
कैसा विचित्र है आज का हमारा समाज ?
हमें चाहिए कि हम बच्चों को उनके जन्मदिन पर भारतीय संस्कार व पद्धति के अनुसार ही कार्य करना सिखायें ताकि इन मासूमों को हम अंग्रेज न बनाकर सम्माननीय भारतीय नागरिक बनायें।
मान लो, किसी बच्चों का 11वाँ जन्मदिन है तो थोड़े से अक्षत (चावल) लेकर उन्हें हल्दी, कुमकुम , गुलाल , सिंदूर आदि मांगलिक द्रव्यों से रंग लें और उनसे स्वास्तिक बना लें । उस स्वास्तिक पर 11 छोटे छोटे दीये रख दें और 12 वें वर्ष की शुरूआत के प्रतीकरूप एक बड़ा दीया रख दें। फिर घर के बड़े सदस्यों से सब दीये जलवायें तथा बच्चा बड़ों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद ग्रहण करे।
- पार्टियों में फालतू का खर्च करने के बजाय अपने और बच्चों के हाथों से गरीबों में , अनाथालयों में भोजन , वस्त्र इत्यादि का वितरण करवाकर अपने धन को सत्कर्म में लगाने के सुसंस्कार दृढ़ करें।
- लोगों के पास से चीज वस्तुएँ लेने के बजाय हम अपने बच्चों को दान करना सिखायें ताकि उनमें लेने की वृत्ति नहीं अपितु देने की वृत्ति को बल मिले।
- हमें उस दिन नये कार्य करवाकर उनमें देशहित की भावना का संचार करना चाहिए । जैसे - पेड़ - पौधे लगाना इत्यादि।
- हमको इस दिन अपने गत वर्ष का हिसाब करना चाहिए यानी कि हमंने वर्षभर में क्या क्या अच्छे काम किये? क्या-क्या बुरे काम किये? जो अच्छे कार्य किये उन्हें भगवान के चरणों में अर्पण करना चाहिए और जो बुरे कार्य हुए उनको भूलकर आगे उन्हें न दोहराने व सन्मार्ग पर चलने का संकल्प करना चाहिए।
- अपने बच्चों से संकल्प करवाना चाहिए कि वे नये वर्ष में पढ़ाई, साधना , सत्कर्म , सच्चाई तथा ईमानदारी में आगे बढ़कर अपने माता-पिता व देश के गौरव को बढ़ायेंगे।
उपरोक्त सिद्धांतो के अनुसार अगर हम कदाचित् उन्हें भौतिक रूप से भले ही कुछ न दे पायें लेकिन इन संस्कारों से ही हम उन्हें भौतिक रूप से भले ही ऐसे महकते फूल बना सकते हैं कि अपनी सुवास से वे केवल अपना घर , पड़ोस , शहर , राज्य व देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को सुवासित कर सकेंगे।
उम्मीद करता हूँ कि आपको यह लेख अवश्य पसंद आया होगा
और आपसे एक विनती भी करता हूँ कि खुद माॅडर्न दिखाने के चक्कर खुद को बर्बाद मत करें। जिस भारतीय सभ्यता को विदेशी अपना रहे है हम उन्हीं से दूर जा रहे है।
अपनी संस्कृति अपनी पहचान
कितनी सुन्दर है अपनी भारतीय संस्कृति उस पर गर्व करें।
शुक्रवार, 20 मार्च 2020
रविवार, 15 मार्च 2020
क्या है हिन्दू राष्ट्र What is Hindu Nation
हिन्दू राष्ट्र , हिन्दू राष्ट्र , हिन्दू राष्ट्र
हर तरफ हो हल्ला हो रहा कि हिन्दू राष्ट्र
लेकिन क्या है ये हिन्दू राष्ट्र का मसला
क्या भारत को हिन्दू राष्ट्र को बनाना है ,
क्या
भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करना है.
आप के ऐसे बहुत से सवालों के जवाब है इस लेख
में
मैं शुरूआत करता हूँ 1 से 7 मई
1977 ई. साप्ताहिक हिन्दुस्तान
में छपे एक किस्से से जामा मस्जिद के शाही इमाम सैय्यद अब्दुल्ला बुखारी जब मक्का
गये तो वहाँ के निवासी ने उनसे पूछा - ‘ आप हिन्दू हैं ? ’ शाही
इमाम ने चौक कर कहा - ‘ नहीं , नहीं मैं मुसलमान
हूँ। ’ बाद में उन्होंने प्रश्नकर्ता से पूछा कि , ‘ आपने मुझे
हिन्दू क्यों कहा ? ’ तो उसका सहज उत्तर था, ‘ इसलिए कि आप
हिन्दुस्थान से आये हैं।’
ऐसे ही एक भारतीय से एक फ्रांसीसी ने पूछा कि ,
‘‘ आपका
मजहब क्या है?’’ उसने उत्तर दिया , ‘हिन्दू’ ।
फ्रांसीसी ने कहा , ‘ वह तो आपकी राष्ट्रीयता है। आपका मजहब क्या है ?
’
हिन्दू - इस देश के निवासी का नाम
न अरब निवासियों को और न ही फ्रांसीसियों या
अन्य देश को इस बारे में कोई भ्रम है कि हिन्दू इस देश की राष्ट्रीयता का नाम है ।
जो भी इस देश का राष्ट्रीय है वह हिन्दू है, भले ही उपासना
की दृष्टि से वह शैव, सिख, शाक्त , मुसलमान ,
ईसाई
, बौद्ध , यहूदी , पारसी क्यों न
हो । इस बात को न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला ने इन शब्दों में कहा है - ‘
फ्रांसीसी
अपनी तर्क और यथार्थ बुद्धि के आधार पर समस्त भारतीयों को , फिर वे किसी भी
जाति या समाज के क्यों न हों, ‘हिन्दू ’ कहते हैं। मुझे
लगता है कि यह उन सब लोगों का बिल्कुल सही वर्णन है जो इस देश में रहते हैं और इसे
अपना घर मानते हैं। सच्चे अर्थाें में हम सब हिन्दू हैं, हालाँकि हम अलग
- अलग मजहबों को मानते हैं। मैं हिन्दू हूँ क्योंकि मैं आर्याें से अपनी परम्परा
को मानता हूँ जो पीढ़ी दर पीढ़ी उत्तराधिकार के रूप में हमें प्राप्त हुई है। यदि हम
सब इस तथ्य को ही स्वीकार कर लें और वंश के नाते अपने आपको हिन्दू कहने लगें तो यह
सेक्युलरवाद की सबसे बड़ी विजय होगी।
फिर भी भ्रम
किन्तु दूसरी ओर ऐसे राजनैतिक नेताओं की कमी
नहीं है जो हिन्दू राष्ट्र के विचार को घोर साम्प्रदायिक और सेक्युलररिज्म के लिए
सबसे बड़ा खतरा बताते हैं, यद्यपि यह भी सत्य है कि उनका यह कथन
किसी न किसी राजनैतिक हेतु से प्रेरित रहता है।
लोकनायक जयप्रकाश यह कहते थे कि बंगलादेश और
पाकिस्तान मिलाकर हम एक राष्ट्र है। हमारे राज्य अलग - अलग हो सकते हैं किन्तु
राष्ट्रीयता हमारी एक है - भारतीय.
लेकिन पश्चिम बंगाल विधानसभा के पूर्व
उपाध्यक्ष कलीमुद्दीन शम्स यह कहते थे कि मुसलमान इस देश में अलग राष्ट्र है। और
शम्स साहब ही नहीं आज भी औवेशी जैसे कई यह कहते पाये जाते हैं। यह सब सुनकर इस देश
के लोगों में राष्ट्र , राज्य , हिन्दू ,
सेक्युलर
आदि के सम्बन्ध में एक गहरा भ्रम उत्पन्न हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । और
इस भ्रम को और अधिक बढ़ाने में कुछ बड़े - बड़े राजनैतिक नेता भी लगे हुए हैं.
क्योंकि ऐसा करने से उनके वोट पकते हैं और उनकी कुर्सी सुरक्षित रहने की संभावना
बढ़ जाती है। हानि अगर पहुँचती है तो हमारी राष्ट्रीय एकता को , आपसी
सद्भाव को , मिलजुलकर काम करने के अपने राष्ट्रीय संकल्प को
। पर कुर्सी के मोह के आगे इन राजनीतिज्ञों को उसकी क्या चिंता ?
लेकिन जो राष्ट्रभक्त है वो इस राष्ट्र की
सर्वांगीण उन्नति चाहते हैं , इस देश को दुनिया का सबसे श्रेष्ठ देश
बनाना चाहते हैं, वे इस प्रश्न का गहराई से विचार किये बिना नहीं
रह सकते , क्योंकि यदि विचार स्पष्ट न हो, मार्ग साफ न हो ,
लक्ष्य
स्थिर न हो और मन मिले हुए न हों तो कदम ठिठकेंगे, गति धीमी होगी,
भटकने
की सम्भावना बढ़ेगी। अतः गहराई से विचार जरूरी है।
हिन्दु राष्ट्र - एक अनादि अखण्ड प्रवाह
और इस आध्यात्कि चेतना का सर्वाधिक आविष्कार
जहाँ की राष्ट्रीयता में हुआ है वह हिन्दू राष्ट्र इतिहास के प्रथम पन्ने पर ही एक
पूर्ण विकसित राष्ट्र के रूप में झलकता हुआ हमें दिखता है । सबसे बड़े सेक्युलरवादी
कहे जाने वाले पं. जवाहरलाल नेहरू ने ग्लिम्प्सेस आॅफ वल्र्ड हिस्ट्री में यह कहते
हुए गौरव का अनुभव किया है कि ‘ इतिहास के उषाकाल से लेकर सीधे हमारे
युग तक भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विशाल और अविच्छिन्न धारा को देखकर कौतूहल
होता है, विस्मित होना पड़ा है।’ मातृभूमि के प्रति उत्कट आत्मीयता का
भाव वैदिक काल में ‘माता इयं , पुत्रो अहम्
पृथिव्याः’ अर्थात् ये धरती हमारी माता है और हम इसके
पुत्र है में प्रकट हो जाता है।
पुराण कहते हैं -
‘ उत्तरं यत्
समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षंतद् भारतं नाम भारती यत्र संतति।।
मे अभिव्यक्त होकर मध्ययुग में बार्हस्पत्य
शास्त्र के इस श्लोक में प्रकट होता है -
‘
हिमालयात्
समारभ्य यावदेन्दु सरोवरम्
तद् देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।
प्रसंगवशात् यह श्लोक ‘हिन्दू’ शब्द
की व्युत्पत्ति का भी संकेत देता है जिसके अनुसार हिमालय का ‘हि’
और
इन्दुसरोवर का ‘न्दु’ मिलकर ‘हिन्दू’ बना
है जबकि एक मान्यता के अनुसार वह ‘सिन्धु’ का अपभ्रंश है
जो पहले सिन्धु के आसपास के प्रदेशों में रहने वालों के लिए प्रयुक्त होकर
कालान्तर में इस पूरे देश के निवासियों के लिए प्रयुक्त हो गया। दोनांे स्थितियों
में ‘हिन्दू’ इस धरती के बेटों के लिए प्रयुक्त हुआ है इसमें
कोई सन्देह नहीं।
राष्ट्रीयता के अनिवार्य घटक के रूप में मातृभूमि के प्रति भावात्मक
सम्बन्ध की यह परम्परा ही नहीं, प्रत्यक्ष राष्ट्रदेव के साक्षात्कार
का प्रमाण भी हमें अथर्ववेद इस वैदिक श्लोक में प्राप्त होता है -
भद्रमिच्छन्त
ऋषयः स्वर्विदः तपोदीक्षामुदासेदुरग्रे।
ततो
राष्ट्रं बलमोजश्र्व जातं तदस्मे देवा उपसन्नमन्तु।।
अर्थात् लोक कल्याण की इच्छा से प्रेरित होकर
ऋषियों ने उग्र तपश्चर्या की जिससे बल और ओज से युक्त राष्ट्र का जन्म हुआ। अतः इस
राष्ट्र-देवता की उपासना करें।
हिन्दू नाम ही क्यों ?
राष्ट्र जीवन का यह अखंड प्रवाह जो पहले भारत
नाम से जाना गया वही अर्वाचीन काल में हिन्दू नाम से प्रसिद्ध हुआ। जैसे गंगा का
पावन प्रवाह भागीरथी , जाहनवी , हुगली आदि
विभिन्न नाम धारण करता हुआ भी वही बना रहा और अपने प्रगतिपथ में अन्य अनेकों
प्रवाहों को सम्मिलित करता हुआ और अधिक समृद्ध होता गया वैसे ही हिन्दुराष्ट्र जीवन का प्रवाह अनेक नाम धारण
करने पर भी एक ही जीवनधारा को इंगित करता रहा और अपने विकास क्रम में अनेकां
प्रवाहों एवं प्रभावों को आत्मसात् करते हुए व उनसे समृद्ध होते हुए आज तक चला आया
है। हिन्दू की जगह भारतीय कह देने से इस देश की राष्ट्रीयता का आशय नहीं बदलता ।
अतः ऐसे सुझाव देने वाले कि हिन्दू राष्ट्र की जगह भारतीय राष्ट्र कहना चाहिए यदि
यह मानते हों कि ऐसा कहने से वे किसी अधिक उदात्त अवधारणा को प्रस्तुत कर रहे हैं,
तो
यह उनकी भूल है। आज दुष्प्रचार की आँधी में ‘हिन्दू’ शब्द
को छोड़ने का अर्थ है अंग्रेजों की उस कुटिल नीति के हाथों पराजय स्वीकार करना
जिसने ‘हिन्दू’ शब्द को केवल सम्प्रदायवादी बताकर उसके अर्थ का
अनर्थ किया। यह स्वामी विवेकानन्द , महायोगी अरविन्द व लोकमान्य तिलक का
अपमान होगा जिन्होंने स्पष्ट एवं असंदिग्ध शब्दों में इस राष्ट्र को हिन्दू
राष्ट्र कहा। यह उन महात्मा गांधी को साम्प्रदायिकता की श्रेणी में बैठाना होगा
जिन्होंने डंके की चोट पर कहा कि हिन्दुत्व सत्य की अनवरत खोज का ही दूसरा नाम है
और यदि आज यह प्रयास कुण्ठित, निष्क्रिय और विकास के प्रति
असंवेदनशील हो गया तो इसका कारण यह है कि हम थक गये है। ज्यों ही यह थकावट दूर
होगी , हिन्दुत्व ऐसी समुज्ज्वल प्रभा से सम्पूर्ण विश्व में प्रस्फुटित
होगा, जैसा शायद इसके पहले कभी नहीं हुआ।
हिन्दू राष्ट्र जीवन के प्रमुख सूत्र
जिस सांस्कृतिक आधार पर इस अति प्राचीन राष्ट्र
की राष्ट्रीयता का भवन खड़ा किया गया है उसका प्रमुख सूत्र है ‘ विविधता
में एकता’ । हिन्दू विचार ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि इस जगत् में प्रत्येक
अस्तित्व की अपनी विशिष्ट भूमिका है और सृष्टि के विकासक्रम में उसका योगदान देने
के लिए पूर्ण अवसर प्रदान करना जहाँ आवश्यक है , वहाँ इस सब
विविधता में विद्यमान मूलभूत एकता की अनुभूति कराकर सबको एकता के सूत्र में पिरोना
भी जरूरी है । इसलिए सब प्रकार की प्रवृत्तियों , गुणवत्ताओं,
भावनाओं
व क्षमताओं वाले लोगों को राष्ट्रजीवन में योग्य स्थान देते हुए समाज जीवन के लिए
पोषक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने की ओर , हानिकारक
प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने की ओर ध्यान दिया गया।
‘सृष्टि में कहीं विरोध नहीं है , सर्वत्र
समन्वय है, क्योंकि सब कुछ एक ही सत्य तत्व का विस्तार है।’
इस
अनुभूति में ऐसी ही व्यवस्थाएँ देने पर बल दिया गया जो विरोध पर नहीं , समन्वय
पर आधारित हों। पश्चिमी सभ्यता की तरह हमारे यहाँ व्यक्ति , परिवार ,
समाज
, राष्ट्र व विश्व को समकेन्द्रित वृतों के समान एक का विकास दूसरे
असम्बद्ध और हित विरोधी न मानकर कुन्तल के समान एक का विकास दूसरे में माना गया।
व्यक्ति की आत्मा ही परिवार, समाज
व राष्ट्र की सीढ़ियां चढ़ती हुई विश्वात्मा बनने की ओर अग्रसर होती है। प्रगति की
इस दशा में मनुष्य को बढ़ना ही हमारे यहाँ की समस्त रचनाओं का लक्ष्य रहा है,
भले
ही अज्ञान में पड़कर हमने उन्हें विकृत क्यों न कर दिया हो।
सत्य एक होते हुए भी मनुष्य अपनी सीमित क्षमता
के कारण उसका सर्वांश में आकलन नहीं कर सकता , उसके एक अंश का
ही अनुभव कर सकता है। इसलिए सत्य की उसकी अनुभूति अन्यों की अनुभूति से यों भिन्न
हो सकती है ‘ एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति। ’ अर्थात्
सत्य एक है पर विद्वान उसे भिन्न - भिन्न ढंग से प्रकट करते हैं। किन्तु केवल अपनी
अनुभूति को ही सत्य और अन्यों की अनुभूतियों को असत्य कहना हमारे यहाँ गलत माना
गया।
माना यही गया कि स्वयं की अनुभूति को सत्य
मानने का पूरा अधिकार होते हुए भी अन्यों की अनुभूतियों को भी सत्य का ही दूसरा
पहलू मानकर उनका समादर करना चाहिए । इसी में से सर्वमत समादर का तत्व निकला जो
हमारे राष्ट्रजीवन का एक अति उज्ज्वल व्यवहार तत्व है।
हिन्दू राज्य भी ऐसे थे
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि राजतंत्र
बदलते रहने पर भी राष्ट्र नहीं बदलता तथा वही राज्यतंत्र देश की प्रगति के लिए
सर्वाधिक उपयुक्त है जो राष्ट्रमानस के अनुकूल हो । राजतंत्र का स्वरूप एकतांत्रिक
, लोकतांत्रिक , सम्प्रदाय - सापेक्ष , सम्प्रदाय
- निरपेक्ष आदि अनेक प्रकार का हो सकता है। हिन्दू राष्ट्र की प्रकृति के अनुरूप
लोकतांत्रिक और सम्प्रदाय निरपेक्ष राज्य - पद्धति ही सर्वाधिक उपयुक्त है।
प्राचीन काल में राजतंत्र या गणतंत्र कोई भी व्यवस्था राज्यों की क्यों न रही हो -
सम्प्रदाय निरपेक्षता उनका अनिवार्य लक्षण रहा है। राज्य का कोई एक सम्प्रदाय का
प्रचार करना हिन्दुओं के राज्य - सिद्धान्तों के विपरीत रहा है और भारत के हिन्दू
राज्यों का इतिहास सम्प्रदाय निरपेक्ष राज्य-व्यवस्था का जीता-जागता प्रमाण है।
विजयनगर के हिन्दू राज्य अथवा पंजाब के सिख वीरों के राज्य में मुसलमानों को पूरी
स्वतन्त्रता को पूरी स्वतंत्रता व समानता प्राप्त थी। छत्रपति शिवाजी की हिन्दू
पदपादशाही में भी मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। कट्टर मुस्लिम
इतिहासकारों ने भी इस बात की प्रशंसा की है कि किस प्रकार अत्यन्त आदर भाव रखते थे
और इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि मुस्लिम बच्चों व वृद्धों पर कोई हाथ न उठाये
। और यह सब उस समय जब इससे बिल्कुल उल्टा व्यवहार मुस्लिम बादशाहों द्वारा
हिन्दुओं के साथ किया जाता था।
राष्ट्रीयता से आगे
हिन्दू राज्य कभी सम्प्रदाय - सापेक्ष नहीं रहा
क्योंकि सम्प्रदाय सापेक्ष राज्य का अर्थ है धर्मगुरूओं द्वारा साम्प्रदायिक
कानूनों के आधार पर चलाया जाने वाला राज्य । रोम के पोप और इस्लाम के खलीफाओं के
समान राज्य चलाने की व्यवस्था हिन्दुस्थान में कभी नहीं रही। ऐसा होते हुए भी यह
कहना कि हिन्दु राष्ट्र , जिसकी अस्मिता उदात्त जीवनमूल्यों के
आधार पर सिद्ध हुई है सम्प्रदाय - निरपेक्ष राज्य व्यवस्था का विरोध करेगा ,
अपना
अज्ञान प्रगट करना ही है। सम्प्रदाय - निरपेक्ष व्यवस्था के विरोध की बात तो दूर ,
हिन्दुराष्ट्र
- जीवन के उदात्त तत्व जो आज उन राष्ट्रों का भी मार्गदर्शन कर सकते है जो दुनिया
की सिकुड़ती दूरियों के बीच इस तीव्र आर्थिक और वैज्ञानिक प्रतियोगिता के युग में
अपनी जीवनावश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अधिक व्यापक सहयोग के लिए बाध्य हुए हैं।
यदि आज के राष्ट्रसमूह कल के विश्व प्रशासन की पूर्व भूमिका है और यदि विविधता को
बलात् एकरूपता लादकर नष्ट नहीं करना है और प्रत्येक राष्ट्र को सम्मान के साथ अपनी
भूमिका निभाने की स्वतंत्रता देना है तो उसके लिए हिन्दु राष्ट्र जीवन को छोड़कर और
कौन सा तात्विक आधार व अनुकरणीय उदाहरण प्राप्त होगा?
सोमवार, 9 मार्च 2020
Swami Vivekananda biography - 1
12 जनवरी 1863 ई. को उन्होंने प्रथम पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम रखा गया - नरेन्द्रनाथ।
नरेन बड़ा नटखट बालक था, और कभी - कभी भुवनेश्वरी देवी उसे सम्भालने में असमर्थ हो जाती। परन्तु उन्होंने यह देखा कि जब नरेन्द्र अत्याधिक चंचल हो जाता, तो यदि उसके सिर पर ठण्डा पानी डालते हुए उसके कान में शिव का नाम सुनाया जाए, तो वह एकदम शान्त हो जाया करता । इसीलिए , अनेकों बार उसे नियन्त्रण में लाने के लिए वे इस युक्ति का इस्तेमाल किया करती थीं।
बालक नरेन्द्र ने अपनी माता से बहुत - सी बातें सीखी थीं, और उनकी माता उसे महाभारत तथा रामायण से अनेकों कहानियाँ सुनाया करती थीं। नरेन्द्र को राम - विषयक कहानियाँ सुनना बहुत अच्छा लगता था। उसने राम - सीता की मिट्टी की एक युगल - मूर्ति खरीदी और फूलों से उसकी पूजा करनी शुरू कर दी । एक बार वह केले के उद्यान में इस उम्मीद में बहुत समय तक बैठा रहा कि उसे हनुमान जी के दर्शन प्राप्त होंगे क्योंकि उसने कहीं सुन रखा था कि राम के इस वीर भक्त को ऐसा स्थान अत्यन्त प्रिय है। उन्हें ध्यान में मग्न होनेवाला खेल भी प्रिय था। वह अपने दो - एक संगियों को अपने साथ किसी एकान्त स्थान में ले जाता और वे लोग सीता - राम या शिव की मूर्ति के सामने बैठ जाते । तब नरेन्द्र ध्यान करने बैठ जाता और भगवान का चिन्तन करता।
वह ईश्वर के ध्यान में मग्न हो जाता और उस समय अपने आसपास कुछ भी अनुभव नहीं कर पाता। एक बार एक नाग सरकते हुए वहाँ आ पहुँचा । अन्य बालक भाग खड़े हुए, परन्तु नरेन्द्र वहीं बैठा रहा । उन्होंने बहुत बार उसे पुकारा , परन्तु नरेन्द्र ने कुछ न सुना। कुछ देर बाद नाग वहाँ से चला गया। बाद में जब उसके माता - पिता ने नरेन्द्र से पूछा कि वह वहाँ क्यों नहीं , तो उसने कहा , ‘‘ मैं नाग के बारे में कुछ भी जान न पाया। मैं तो आनन्द में था।’’
जब कोई साधु नरेन्द्र के घर आते तो वह बड़ा प्रसन्न होता था। कभी- कभी तो वह उन्हें किमती चीजें तक दे डालता था। एक बार उसने अपना पहना हुआ नया कपड़ा ही एक साधु को दे दिया। इस घटना के बाद जब भी कोई साधु उनके घर में आता, तो नरेन्द्र को एक कमरे में बन्द कर दिया जाता था। परन्तु यदि नरेन्द्र उस समय किसी साधु को देख पाता तो खिड़की से ही चीजें फेंक दिया करता। कभी - कभी तो वह कह उठता कि किसी दिन वह भी साधु बन जाएगा।
जैसा हमने पहले ही कहा है, नरेन्द्र के पिताजी एक वकील थे । बहुत से लोग उनसे मिलने आया करते थे। वे उन सबका आतिथ्य करते एवं हुक्का पीने के लिए दिया करते । बैठकखाने में विभिन्न जाति के लोगों के लिए अलग - अलग हुक्कों की व्यवस्था थी। परन्तु जातिभेद नरेन्द्र के लिए एक बड़ा रहस्य था। क्यों एक जाति के सदस्य को अन्य जाति नरेन्द्र के लिए एक बड़ा रहस्य था। क्यों एक जाति के सदस्य को अन्य जाति के सदस्यों के साथ भोजन करने नहीं दिया जाता ? क्यों विभिन्न जातियों के लिए अलग - अलग हुक्कों की व्यवस्था की गई थी।
क्या होगा यदि वह सभी हुक्कों से धुम्रपान करे? क्या कोई धमाका होगा? या छत नीचे गिर पड़ेगी? नरेन्द्र ने स्वयं ही इसका पता लगाने कि निश्चय किया। उसने एक हुक्के से एक कश लगाया। कुछ भी तो नहीं हुआ। इस प्रकार एक के बाद एक सभी हुक्कों से कश लगाया। फिर भी नहीं हुआ। उसी वक्त उसके पिताजी ने उस कक्ष में प्रवेश किया और पूछा कि वह क्या कर रहा है। नरेन ने उत्तर दिया , ‘‘ पिताजी मैं देख रहा था कि यदि मैंने इस तरह जाति तोड़ी, तो आखिर होगा क्या? ’’ उसके पिताजी ने एक ठहाका लगाया और अपने अध्ययन कक्ष में चले गए।
जब नरेन्द्र छह वर्ष का हुआ तो उसका पढ़ना शुरू हुआ पहले - पहल वह पाठशाला में नहीं गया था क्योंकि उसके पिताजी ने उसके लिए एक शिक्षक नियुक्त कर दिया था। जब सात वर्ष का हुआ तो उसे मेट्रोपोलिटन संस्था में दाखिल करवाया गया। इस संस्था के संस्थापक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर थे। नरेन्द्र नाथ एक अत्यन्त मेधावी छात्र था और अकस्मात् ही पाठ को याद कर लिया करता था। वह बालकों का नेता बन गया। खेल में उसकी बहुत रूचि थी। दोपहर भोजन समाप्त कर वह सबसे पहले खेल के मैदान में पहुँच जाता । कूदना , दौड़ना , मुक्केबाजी तथा काँच की गोलियों से खेलना आदि में उसकी विशेष रूचि थी। वह कुछ खेलों का आविष्कार भी कर लिया करता था।
नरेन को पशुओं से भी बड़ी प्रीति थी तथा वह घर की गाय से भी खेला करता । उसने कुछ पालतू जानवर और पंक्षियों को भी पाल रखा था। इनमें एक - एक बन्दर , बकरी और मोर , कुछ कबूतर तथा दो या तीन गिनी - पिग थे।
जैसे - जैसे नरेन्द्र बड़ा होने लगा वह खेलने के बजाय पुस्तकें पढ़ने में अधिक रूचि लेने लगा। एक वर्ष के लिए वह प्रेसिडेन्सी काॅलेज में पढ़ने के लिए दाखिल हुआ, उसके दूसरे वर्ष वह जनरल असेम्बली की संस्था में दाखिल हुआ, जिसे आजकल स्काॅटिश चर्च काॅलेज कहा जाता है। इस काॅलेज के अध्यापकगण नरेन्द्र की बुद्धिमत्ता देखकर चमत्कृत हो जाते थे। प्रधानाध्यापक श्री विलियम हेस्टी ने कहा था कि नरेन के समान प्रतिभाशाली छात्र उन्होंने आज तक नहीं देखा । नरेन बहुत पढ़ाई करता था तथा विभिन्न विषयों पर अनेकों पुस्तकें पढ़ा करता था। उसने 1881 ई. में बी.ए. (प्रथम) की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1884 ई. में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की।
नरेन्द्र ने चार या पाँच वर्षों तक संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की थी। उसने अनेक प्रकार के वाद्य - यन्त्रों को बजाना भी सीख लिया था तथा एक उत्कृष्ट गायक के रूप में उसकी ख्याति भी हुई थी।
इसी समय नरेन धर्म - विषयक समस्याओं में विशेष रूचि लेने लगे। अन्य नवयुवकों की भाँति नरेन्द्र भी ब्रह्मसमाज का सदस्य बन गया तथा श्री केशवचन्द्र सेन की वकृताओं को सुनने लगा। परन्तु एक प्रश्न उसे सदा कष्ट पहुँचाता कि ईश्वर का कोई अस्तित्व भी है या नहीं अथवा क्या किसी ने आज तक उसे देखा भी है। इस प्रश्न के उचित समाधान हेतु वह अनेक धार्मिक नेताओं के समक्ष गया जिसमें श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर भी थे। परन्तु कोई भी उसकी शंकाओं का समाधान नहीं कर सका।
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक
GURU JI |
19 फरवरी सन् 1906 ई. में नागपुर में जन्मे श्री माधव सदाशिव गोलवलकर अपने माता पिता की नौ सन्तानों मे से एकमात्र जीवित पुत्र थे। ऐसा लगता है कि भाग्य ने ही एक विशेष उद्देश्य के लिए उन्हें जीवित रखा। तभी तो बाद के वर्षों में वे राष्ट्र के आशा - केन्द्र के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक बने।
बाल्यकाल से ही मेधावी रहे माधवराव नागपुर विश्वविद्यालय के हिस्लाॅप काॅलेज से स्नातक हुए । तत्पश्चात् उन्होंने वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.एससी. उत्तीर्ण की। उस अवधि में वे उस काल के प्रसिद्ध हिन्दू नेता और विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी के प्रेरणादायक व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। बाद में दो वर्ष तक वे वहीं अध्यापक रहे। उनके प्रिया शिष्यगण आदर से उन्हें ‘‘ गुरूजी ’’ कहने लगे और यही उपनाम आगे भी उनसे जुड़ा रहा। जब वे अध्यापक थे तभी अपने एक छात्र श्री प्रभाकर बलवन्त ( भैयाजी ) दाणी की प्रेरणा से जो आगे चलकर संघ के कार्यवाह बने, वे संघ में प्रविष्ट हुए।
श्री गुरूजी सन् 1933 में नागपुर लौटे आये और यहां वे संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार के चुम्बकीय व्यक्तित्व से आकर्षित हुए। इस संपर्क ने शीघ्र ही उनका ऐसा कायापलट किया, जैसे नरेन्द्र का श्री रामकृष्ण से मिलने पर हुआ था। अविवाहित जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेकर उन्होने विधि का अध्ययन किया तथा कुछ समय तक वकालत की । परन्तु अधिकांश समय और शक्ति वे संघ की गतिविधियों में लगाने लगे।
किन्तु अपने व्यक्तिगत व्यवसाय या सुख - सुविधा से ही बचे रहने की उनकी प्रवृति ही नहीं थी। उनकी आंतरिक आकांक्षा के अनुसार , आध्यात्मिक साधना हेतु वे रामकृष्ण मठ क सारगाछी आश्रम चले गये। वहां वे कुछ महीने रहे और श्री रामकृष्ण के अनुयायी तथा स्वामी विवेकानन्द के गुरू - भाई स्वामी अखंडानन्द से मंत्र - दीक्षा ग्रहण की । उनके गुरू ने अपने अंतिम दिनों में उन्हें आश्रम के बाहर रहकर समाज की सेवा में लगने का आदेश किया । श्रीगुरूजी सन् 1937 ई. में नागपुर लौट आए और उसके बाद पूरे मन से संघ के कार्य में जुट गए। डाॅ हेडगेवार ने बड़ी बारीकी से उन्हें परख लिया और नागपुर के तृतीय वर्ष के प्रशिक्षण वर्ग के सर्वाधिकारी का महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा तथा फिर सरकार्यवाह , ऐसे बढ़ाते हुए दायित्वों को सौंपने लगे।
श्री गुरूजी की बौद्धिक एवं मानसिक क्षमता के बारे में अपने वरिष्ठ सहयोगियों से परामर्श करने के बाद 1940 ई. में डाॅ. साहब ने अपने निधन के बाद सरसंघचालक का दायित्व श्री गुरूजी को सौंपे जाने का निश्चय प्रकट कर दिया।
श्री गुरूजी ने 33 वर्षों के लम्बे समय तक संगठन में मार्गदर्शक और दार्शनिक की भूमिका निभाई। अनवरत एवं अथक प्रयास करते हुए वे प्रत्येक प्रांत का वर्ष में दो बार भ्रमण करते थे। इस प्रकार कम से कम साठ बार उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। संभवतः आज भी यह अपने आप में एक अद्वितीय कीर्तिमान है । श्री गुरूजी ने असम और केरल जैसे दूरस्थ प्रांतों तक कार्य विस्तार को तीव्र और ऊर्जावान गति प्रदान की । जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित हिन्दू पुनरूत्थान अभियान के कर्णधार के नाते बागडोर संभाली, तब हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना केवल एक कोरा चिंतन मात्र थी। परन्तु , अपनी असीम प्रतिभा के बल पर उन्होंने हिन्दू राष्ट्र की ऐतिहासिक , सामाजिक पृष्ठभूमि और शुद्ध अवधारणा अकाट्य रूप में प्रस्तुत की । इस प्रकार उन्होंने संघ के वैचारिक आधार को सामान्य ग्रामीण से लेकर नगरीय तक की समझ के अनुकूल बनाया। अपनी वाणी और कृति से उन्होंने शाखा-पद्धति को बारीकी से परिपूर्ण बनाया 1940 से पूर्व पूर्णकालिक प्रचारकों की परम्परा कम थी। उसे तेजी से बढ़ाकर पेरे देश में शाखाओं के व्यवस्थित विस्तार के लिए एक सशक्त अंग के रूप में स्थापित करने का भी श्रेय श्रीगुरूजी को है।
जब गुरूजी ने संघ की बागडोर संभाली , उस समय देश की स्थिति बहुत नाजुक बनी हुई थी। सर्वत्र स्वराज्य की चर्चा चल थी। संघ जैसे संगठन की प्रासंगिकता पर अनेक शंकाएं और जिज्ञासाएं उठाई जा रही थी। श्री गुरूजी शांति से और सुसंगत ढंग से समझाते थे कि किस प्रकार एक सुसंगठित समाज ही स्वराज्य को सुरक्षित रख कर उसके फलों का आस्वादन कर सकता है । उन्होने यह भी समझाया कि राष्ट्रीयता की सही अवधारणा क्या है तथा स्वराज्य के लिए वह शुद्ध दर्शन ही प्रेरक बन सकता है। देशव्यापी दंगो और हिन्दुओं के ग्राम - सम्पत्ति एवं मानबिंदुओं पर आक्रमणों की भयावह परिस्थिति में श्री गुरूजी वीरोचित मुद्रा में दृष्टिगोचर हुए। उन्होंने अविराम पूरे देश की यात्रा की - विशेषतः पंजाब और सिन्ध की - और जनता के मनोबल को दुर्दम्य बनाया तथा त्याग और बलिदान की चेतना जगाई। उनके आह्वान का स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार प्रतिसाद दिया और नारकीय इस्लामिक उन्माद से हिन्दू भाइयों और बहिनों के प्राण व सम्मान की रक्षा की, इसकी रोमांचक गाथा श्री गुरूजी के प्रेरणादायक नेतृत्व की उज्ज्वल साक्षी है।
श्री गुरूजी के फौलादी नेतृत्व की परीक्षा एक बार फिर हुई, जब केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने , तुच्छ दलीय उद्देश्य से , महात्मा गांधी की हत्या का फायदा उठाकर सन् 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया, अत्यंत भड़काऊ और विद्वेषपूर्ण प्रचार किया। श्री गुरूजी की गिरफ्तारी के विरूद्ध संघ बड़ी निर्भीकता से उठ खड़ा हुआ और सत्याग्रह के उन्मेष की वेला में सम्पूर्ण देश में स्वयंसेवकों की गिरफ्तारियां और यातनाओं ने राष्ट्र के अंतःकरण को झकझोर दिया। फलतः सरकार को प्रतिबंध उठाना पड़ा।
किन्तु इस विजय के पश्चात् स्वयं स्फूर्त प्रचण्ड जन - स्वागत के बाद भी श्री गुरूजी ने अपना संयम बनाए रखा और स्वयंसेवकों से आग्रह किया कि वे भावावेश में आकर विरोध एवं विद्वेष के शिकार न हों तथा नवार्जित स्वातंत्रय को सुदृढ़ करने में राष्ट्र के कर्णधारों का सहयोग करें । उदाहरण के रूप में 1947 के देश - विभाजन के बाद जब कश्मीर का भाग्य अंधकार में लटक रहा था तब श्री गुरूजी, सरदार पटेल के कहने पर महाराजा से मिले और भारत में अविलम्ब विलय के लिए उनको तैयार किया। आगे फिर श्री लालबहादुर शास्त्री के निमंत्रण पर 1965 में पाक - आक्रमण के समय सर्वदलीय बैठक में भाग लिया और प्रभावी प्रतिरोधात्मक सही रणनीति निर्धारित करने में सहायता की।
अब हिन्दू राष्ट्र के नवोत्थान की संकल्पना को मूर्त रूप देने में संघ की नवीन भूमिका स्पष्ट शब्दों में निरूपित करने का कठिन कार्य सामने आया। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत - अखिल भारतीय विद्यार्थी , भारतीय मजदूर संघ , विश्व हिन्दू परिषद , भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती तथा सेवा कार्य जैसे अनेक संगठनों का निर्माण हुआ। आगे चलकर आपने गोवंश जैसे राष्ट्रीय मान बिन्दुओं के प्रति राष्ट्र के अंतःकरण में सोई हुई श्रद्धा जगाने के लिए जन - जागरण के माध्यम से एक विशाल अभियान प्रारम्भ किया। श्री गुरूजी की ही प्रेरणा से संघ के स्वयंसेवक 1963 में स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी के ऐतिहासिक अवसर पर हिन्दू पुनरूत्थान का उनका ओजस्वी संदेश चारों ओर प्रसारित करने और कन्याकुमारी के समुद्र में भव्य विवेकानंद शिला स्मारक खड़ा करने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ कूद पड़े।
भारत के सर्वसाधारण समाज तथा प्रबुद्ध वर्ग से समान रूप से निकट संपर्क होने के कारण श्रीगुरूजी राष्ट्र की धड़कन से सदैव परिचित रहते थे। इस कारण कई बार आने वाली घटनाओं का उनको पूर्वाभास हो जाता था। जिसकी वह शासकों तथा समाज को तथा लोगों को चेतावनी भी देते रहते थे। छठी दशाब्दी के प्रारम्भ में जब सरकार ने अपनी पूर्व वचन - बद्धता के कारण भाषावार प्रान्त रचना के लिए एक त्रिसदस्यीय आयोग की नियुक्ति की , उस समय श्री गुरूजी ने अकेले ही इसके संभाव्य परिणामों के बारे में चेतावनी दी और एकात्मक शासन प्रणाली के लिए आग्रह किया। उसी समय उत्तर - पूर्वी राज्यों में फैली अशांति को लेकर उन्होंने ईसाई मिशनरियों की उन राष्ट्रविघातक गतिविधियों की शासनाधीशों को चेतावनी दी, जिनके कारण आज देश को भारी मूल्य चुकाना पड़ रहा है। पांचवीं दशाब्दी के मध्य में जब हमारे राजनेता ‘‘ हिन्दी - चीनी भाई भाई ’’ का राग अलाप रहे थे तब गुरूजी ने सार्वजनिक रूप से कितना सही परामर्श दिया था कि इस थोथे शब्द - जाल के धोखे में न आएं। अपनी सीमाओं की सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था करें। उन्होंने पहले हीे चीन के दुष्ट मंसूबो को समझ लिया था कि वह हमको भुलावे में रखकर सीमा - पार से हमारे ऊपर आक्रमण करना चाहता है । सन् 1961 की जनगणना से पहले जब पंजाब समस्या प्रारंभिक अवस्था में थी, उनका ही एकमात्र साहसपूर्वक , विवेकपूर्ण आह्वान था कि सहजधारी हिन्दू अपनी मातृभाषा पंजाबी लिखाएं तथा सभी सिख बंधु अपने को हिन्दु लिखाएं।
आज यह हम देख सकते हैं कि उनकी प्रत्येक चेतावनी ‘ भविष्यवाणी ’ सिद्ध हुई तथा उनकी अवहेलना के कैसे दुष्परिणाम निकले है। श्री गुरूजी की प्रथम चिंता का विषय हमेशा यही रहा कि हिन्दू समाज में आंतरिक विघटन एवं विभेद समाप्त हों। शंकर , मध्व , रामानुज तथा अन्य पीठाधिष्ठित धर्माचार्यों को सहमत कर लेने वाले , उनके अनुनय-विनय का ही परिणाम था कि उन्होंने पहले कर्नाटक विश्व हिन्दू परिषद के उड्डपी सम्मेलन में तथा बाद में प्रयाग के 1996 में हुए विश्व हिन्दू सम्मेलन में सर्वसम्मति से छुआछूत , जातिवाद , वर्गवाद आदि बुराइयों को समाप्त करने की घोषणा की और हिन्दू समाज का समरसतापूर्ण एकता के लिए आह्वान किया।
इस प्रकार हिन्दू राष्ट्र के नवोत्थान के आदर्श के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता होने के कारण उन्होंने एक महान ध्येय से अनुप्राणित , अनुशासित विशाल संगठन खड़ा करने में सफलता पाई। अपनी मृत्यु से पूर्व श्री बालासाहब देवरस ( मधुकर दत्तात्रेय देवरस ) जी के सुयोग्य हाथों में अपना उत्तराधिकार लिखित रूप में उन्होंने सौंप दिया।
5 जून 1973 को उनकी जीवन लीला समाप्त हुई । वह अपने पीछे छोड़ गये संघ की सतत विकासोन्मुखी प्रेरणादायक परंपरा। संक्षेप में उनका गतिशील कर्तव्य उनके आशा और विश्वास से युक्त अंतिम संदेश में मूर्तिमन्त हो उठा, जो उन्होने 1973 की नागपुर की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के सम्मुख दिया कि अंततोगत्वा संघ अपने उद्देश्य में सफल होकर रहेगा। उनके शब्द थे - ‘‘ सर्व दूर विजय ही विजय है। ’’
शनिवार, 7 मार्च 2020
Rashtriya Swayamsevak Sangh ke sansthapak - 2
स्वतंत्रता का लक्ष्य -
विदर्भ के सभी छोटे - बड़े कार्यकत्र्ताओं की यह तीव्र इच्छा थी कि नागपुर का अधिवेशन लोकमान्य तिलक की अध्यक्षता में हो। किन्तु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी, क्योंकि उसके पहले ही 1 अगस्त , 1920 को मृत्यु ने उन्हें छीन लिया। इस दुःखद समाचार के नागपुर पहुँचने पर यह प्रश्न उठा कि अब अध्यक्ष कौन बने ? नागपुर के गरमदलीय नेताओं ने पाण्डिचेरी में साधना कर रहे पुराने क्रान्तिकारी श्री अरविन्द घोष को निमन्त्रित करने का निश्चय किया। डाॅ. मुंजे और डाक्टर हेडगेवार अरविन्द बाबू से मिलने पाण्डिचेरी गये और उनसे अध्यक्षता स्वीकार करने का बहुत आग्रह किया। किन्तु आध्यात्मिक साधना का मार्ग अपना लेने वाले अरविन्द बाबू पुनः राजनीति में आने के लिए नहीं हुए । तब कांग्रेस के नरमपंथियों में से ही श्री विजयराघवाचारी को अध्यक्ष पद के लिए चुना गया। डाक्टर साहब को यह नाम पसंद नहीं था, किन्तु एक बार चयन हो जाने के बाद उन्होंने अधिवेशन की सफलता के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। अधिवेशन में आये साढ़े चैदह हजार प्रतिनिधियों की सुख - सुविधा और अन्य व्यवस्थाएँ सँभालने के लिए डाॅ. ल. वा. परांजपे और डाॅ. हेडगेवार के नेतृत्व में एक स्वयंसेवक दल का गठन किया गया था । यह सारी जिम्मेदारी उन्होंने इतने अच्छे ढंग से निभायी कि वे सभी की प्रशंसा के पात्र बन गये।
इस अधिवेशन में खिलाफत आन्दोलन की सहायता करने का प्रस्ताव पारित हुआ। सच पूछा जाय तो मुसलमानों के सहयोग को आवश्यकता से अधिक महत्व देने की गांधी जी की निती डाक्टर साहब का मान्य नहीं थी। अपनी बात उन्होंने गांधी जी तक पहुँचायी भी। डाक्टर साहब ‘सम्पूर्ण स्वतंत्रता’ शब्दों के प्रयोग का अत्यधिक आग्रह करते थे। उन्होने प्रयत्नपूर्वक यह प्रस्ताव भी स्वागत - समिति से पारित करवाकर विष्य - समिति के पास भिजवाया था कि ‘‘ हिन्दुस्थान में लोकतंत्र की स्थापना कर पँूजीवादी राष्ट्रों के चंगुल से देश को मुक्त कराना ही कांग्रेस का ध्येय है।’’ किन्तु तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं को विचारों की इतनी ऊँची छलांग रास नहीं आयी। अतः ये दोनों ही सुझाव रद्दी की टोकरी में डाल दिये गये।
जब डाॅक्टर साहब जेल गए -
डाक्टर साहब का यह मत था कि यदि किसी संस्था में काम करने का निश्चय किया है तो मतभेदों के होते हुए भी उस संस्था के निर्णयों को सिर- आँखों पर स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने इसका पालन किया। गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ‘ खिलाफत’ के समर्थन में असहयोग आन्दोलन से स्वराज्य निकट आयेगा या देश को और कोई विशेष लाभ होगा। फिर भी यह सोचकर कि इससे देश में जागृति - निर्माण करने का कम से कम एक अवसर तो मिलेगा , वे आन्दोलन में कूद पड़े और तूफानी दौरा कर अपने उग्र भाषणों और कार्यो से उन्होंने विदर्भ के ग्रामीण भाग में हलचल मचा दी ।
इस कार्य के कारण उन पर राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया। गांधी जी का मत था कि आन्दोलन में जिन पर मुकदमें चलाये जायंे वे अपना बचाव न कर सजा स्वीकार कर लें। किन्तु डाक्टर साहब ने अदालत के मंच को भी राष्ट्रीय विचारों के प्रचार का माध्यम बनाने हेतु मुकदमा लड़ा और सरकारी रिपोर्टरों के होश ठिकाने लगा दिये। अदालत में दी गयी उनकी सफाई उग्र देशभक्ति से इतनी सराबोर और इतनी तीखी भाषा में थी कि न्यायाधीश को भी कहना पड़ा कि उनका ‘‘ बचाव का भाषण मूल भाषण से भी अधिक राजद्रोहात्मक है।’’ डाॅ. साहब को एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा हुई जिसे उन्होंने प्रसन्नता से काटा।
Rashtriya Swayamsevak Sangh Ke Sansthapak - 1
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गत 95 वर्षों में न केवल देशव्यापी हुआ है अपितु भारत के राष्ट्रजीवन में उसने अपना एक महत्वपूर्ण स्थान भी बना लिया है। देश के सामने विद्यमान समस्याओं का राष्ट्रीयता की भावात्मक अवधारणा के निकष पर निदान करने की संघ की परम्परा होने के कारण उसके मत को प्रबुद्ध लोकमानस में विशेष महत्व भी प्राप्त हुआ है। किन्तु इतना सब होते हुए भी संघ के संस्थापक डाॅक्टर केशव बलिराम हेडगेवार का नाम एवं उनका जीवन संघ-बाह्य क्षेत्र में अल्पज्ञात ही है। यह डाॅक्टर हेडगेवार जी के आत्मविलोपी स्वभाव का ही स्वाभाविक परिणाम है।
यह लेख डाक्टर हेडगेवार जी जीवन , विचार एवं कृतित्व के सम्बन्ध में समाज को अवगत कराने हेतु एक प्रयास है। डाॅक्टर जी के व्यक्तित्व में बीजरूप में विद्यमान गुणों एवं उनके द्वारा की गयी कृतियों की अभिव्यक्ति संघरूपी विशाल वटवृक्ष के अंग-प्रत्यंग में किस प्रकार हुई है।
RASHTRIYA SWAYAMSEVAK SANGH FOUNDER |
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम आज केवल भारत में ही नहीं दुनिया भर में फैल चुका है। सभी मानते है कि आर. एस. एस. हिन्दुओं का एकमेव प्रभावी संगठन है। संघ के विरोधी भी इस बात से इन्कार नहीं कर पाते कि भारत के राष्ट्रजीवन में संघ का अपना एक विशेष स्थान है। तब स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि इस संगठन का प्रारम्भ कब, किसने , कहाँ और क्यों किया ?
संघ के जन्मदाता का जीवन कैसा था? ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले इस संगठन का निर्माण करने कि प्रेरणा उन्हें कहाँ से मिली ? संघ आरम्भ में जैसा था अव भी वैसा ही है या उसमें कोई परिवर्तन हुआ है? आदि ।
संघ निर्माता के जीवन और कार्य के सम्बन्ध में कुछ विचार कर लिया जाये।
जन्मजात देशभक्त -
डाॅ. हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 ई. को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन नागपुर के एक गरीब वेदपाठी परिवार में हुआ था। जन्म के समय किसी भी प्रकार की अनुकूलता उन्हें प्राप्त नहीं थी। पुरोहिती कर आजीविका चलाने वाला उनका परिवार नागपुर की एक पुरानी बस्ती में निवास कर रहा था। घर का वातावरण आधुनिक शिक्षा और देश के सार्वजनिक जीवन से सर्वथा अछूता था। किन्तु जन्म से ही भगवान ने डाॅ. साहब को एक अनोखी देन दी थी जिसके बल पर वे अपने जीवन को कर्तृव्यवान, परिस्थिति को बदलने की क्षमता रखने वाला और आदर्श बना सके। यह ईश्वरीय देन थी - जन्मजात देशभक्ति और समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता। उमर के आठवें वर्ष में ही उसका परिचय केशव के संगी - साथियों , पड़ोसियों और घर के लोगों को मिलने लगा था। इस उमर में ही उनके मन में ऐसा भव्य विचार आया कि इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया का राज्य पराया है और उसके साठ साल पूरे होने की खुशी में जो मिठाई बाँटी गयी उसे खाना हमारे लिए लज्जा की बात है , और मिठाई का वह दोना उन्होंने एक कोने में फेंक दिया। चार साल बाद सातवें एडवर्ड का राज्याभिषेक - समारोह जब बड़े ठाठ - बाट से मनाया गया तब उसमें भी केशव ने भाग नहीं लिया । बाल केशव ने कहा - ‘‘ पराये राजा का राजा का राज्यभिषेक - समारोह मनाना हम लोगों के लिए घोर लज्जा की बात है । ‘‘
विद्यालय में पढ़ते समय नागपुर के सीतावर्डी किले पर अंग्रेजों के झण्डे ‘ यूनियन जैक’ को देखकर उन्हें बड़ी बेचैनी होती थी और मन में एक दिन एक अनोखी कल्पना उनके मन में उभरी कि किले तक सुरंग खोदी जाय और उसमें से चुपचाप जाकर उस पराये झण्डे को उतारकर उसकी जगह अपना झण्डा लगा दिया जाय । तदनुसार उन्होने अपने मित्रों सहित सुरंग खोदने का काम शुरू भी किया था। लेकिन उनके गुरू जी ने जब सुरंग का काम देखा तो उन्हें रोक दिया ।
देशभक्ति - जीवन का स्वर
यह जो क्रियाशाील देशभक्ति का भाव डाॅक्टर हेडगेवार के बचपन में प्रकट हुआ, वही उनके जीवन में अखण्ड रूप से बना रहा और उनके सारे जीवन को प्रकाशित करता रहा। वे जब नागपुर के नीलसिटी हाईस्कूल में पढ़ रहे थे, तभी अंग्रेज सरकार ने कुख्यात रिस्ले सक्र्युलर जारी किया। इस परिपत्र का उद्देश्य विद्यार्थियों को स्वतन्त्रता के आन्दोलन से दूर रखना था। नेतृत्व का गुण केशवराव हेडगेवार में विद्यार्थी अवस्था से ही था। शाला के निरीक्षण के समय उन्होंने प्रत्येक कक्षा में निरीक्षक का स्वागत ‘ वन्दे मातरम्‘ की घोषणा से कराने का निश्चय किया और उसे सफलता के साथ पूरा कर दिखाया। विद्यालय में खलबली मच गयी , मामला तूल पकड़ गया और अन्त में उस सरकार - मान्य विद्यायल से उन्हें निकाल दिया गया। फिर यवतमाल की राष्ट्रीय शाला में उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई की , किन्तु परीक्षा देने के पूर्व ही वह शाला भी सरकारी कोप का शिकार हो गयी। इसलिए उन्हें परीक्षा देने अमरावती जाना पड़ा ।
जब कोई राष्ट्र गुलाम होता है तब देशभक्ति से जलते अन्तःकरण बड़े ही संवेदनशील हो जाया करते हैं। केशव निर्भीक और साहसी थे तथा देश के लिए किसी भी प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार थे। उन्होंने सन् 1910 में कलकत्ते के नेशनल मेडिकल काॅलेज में डाक्टरी की शिक्षा के लिए प्रवेश लिया ताकि उनका बंगाल के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क आ सके और बाद में वे वैसा ही कार्य विदर्भ में कर सकें । वहाँ पुलिनबिहारी दास के नेतृत्व में अनुशीलन समिति नामक क्रांतिकारियों की एक टोली काम कर रही थी। इस समिति के साथ केशवराव का गहरा सम्बन्ध स्थापित हुआ और वे उसके अंतरंग में प्रवेश पा गयें।
गुरुवार, 5 मार्च 2020
RASHTRIYA SWAYAMSEVAK SANGH (RSS) KI SHAKHA KE KHEL राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा के खेल
खेल उतने ही प्राचीन हैं, जितना इस पृथ्वी पर मानवजीवन , मानवजीवन के विकास के साथ ही खेलों का भी विकास होता चला गया। स्वस्थ शारीरिक विकास , मनोरंजन , विविध गुण- विकास आदि के लिये एक उत्कृश्ट साधन के रूप में खेलों का परिचय आज जगत के सभी विकसित मानव समूहों में विद्यमान है । विविध भूभागों की जलवायु , भूगोल वहाँ के समाजों की परम्परा , इतिहास आदि कई स्थानीय वास्तविकताएँ खेलो की चालढाल को भिन्न - भिन्न प्रकार से परिवर्तित रूपों में ढालती रही है। खेलों के माध्यम से यह स्थानीय पृश्ठभूमि भी खिलाड़ी तथा दर्षक , दोनों तक पहुँचायी जा सकती है तथा यह उनके मनों को प्रभावित कर सकती है, इसीलिए खेल संस्कारों का एक सषक्त व सुलभ माध्यम बन सकते है।
“ The battle at waterloo was won on the playground of Haroow & Eton”.
यह अंग्रेजी वाक्य अथवा स्वामी विवेकानंद द्वारा भारतीय युवकों को श्रीमद्भगवत्गीता को ठीक से समझने के लिए फुटबाॅल के मैदान में उतरने का उपदेष इसी सत्य को निर्देषित करता है।
खेल के विशय में इस सत्य को समझ कर उनके माध्यम से संस्कार व व्यक्ति - विकास का सफल व व्यापक प्रयोग राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किया , जिसे आज भी शाखा के मैदान पर जाकर अनुभव कर सकते है। इन खेलों से एक विश्व व्यापी संगठन खड़ा हो गया।
1. विभिन्न प्रकार की दौड़
1. एक टाँग की (लगड़ी) दौड़ (प्रकार 1) -
बायें हाथ से बायें पैर को पीछे की ओर टखने के पास पकड़ कर , प्रारम्भ रेखा से निर्धारित स्थान तक इसी स्थिति में एक टाँग से दौड़ना
। वापस आते समय दूसरी टाँग का उपयोग करें।
2. एक टाँग की दौड़ (प्रकार 2) -
एक टाँग पर दौड़ते समय हथेली के पृश्ठ भाग, कोहनी , कंधे या सिर पर कोई सिक्का या पत्थर रखकर दौड़े ।इन वस्तुओं को बिना गिराये, निर्धारित दूरी सबसे सबसे पहले पूरी करने वाला विजयी होगा।
3. बिच्छू दौड़ - दोनो हाथ तथा एक पैर के सहारे निर्धारित लक्ष्य तक दौड़ना , दूसरा पैर बिच्छू की दुम की तरह ऊपर उठा रहेगा। वापसी पर पैर बदल भी सकते है।
4. ठेला दौड़ - एक खिलाड़ी अपने दोनो हाथ धरती पर रखेगा , दूसरा उसके पैरों को टखनों के पास से पकड़कर कमर तक उठायेगा । इस प्रकार बनी जोड़ी निर्धारित स्थान तक जायेगी, वापसी पर दोनों खिलाड़ी अपनी स्थिति बदल लेंगे।
5. गणित दौड़ - 4 - 6 मेज, प्रत्येक पर एक बड़े कागज पर गणित के कुछ प्रश्न लिखें खिलाड़ी पेन लेकर दौड़गे। सबप्रष्न ठीक हल करके सबसे पहले वापिस आने वाला खिलाड़ी विजयी होगा।
2. स्पर्ष के खेल
1. गणेष छू - एक खिलाड़ी बायें हाथ से अपनी नाक पकड़ेगा तथा दाहिने हाथ को इसके बीच से सँूड की तरह निकाल कर बाकी सबको छूएगा।जो खिलाड़ी छुए जायेंगे वे भी इसी प्रकार गणेष बन कर छूना शुरू कर देंगे, सबके गणेक बन जाने पर खेल समाप्त होगा।
2. लाहौर किसका - भूमि पर एक छोटा गड्ढा बनाकर एक खिलाड़ी उसमें पैर की एड़ी रखकर खड़ा होगा तथा उच्च स्वर से पूछेगा
- लाहौर किसका ? सब उत्तर देंगे - हमारा । तीन बार इस उद्घोश के बाद सब लाहौर पर कब्जा करने हेतु धक्का - मुक्की करेंगे। निर्धारित समय (30 सेंकड) बाद सीटी बजने पर जिसकी एड़ी वहाँ होगी । वही विजयी माना जायेगा, इस प्रकार खेल चलता रहेगा।
3. दर्दीले घुटने - दौड़ने वाले खिलाड़ी अपने हाथ घुटनों पर रखकर दौड़ेगे, छूने वाला खिलाड़ी दोनों हाथ सिर के पीछे बाँधकर सिर या कोहनी से छुएगा।
4. दो दलों के खेल -
1. शक्ति परिचय (प्रकार 1 ) - दोनों दलों के खिलाड़ी आगे - पीछे एक दूसरें की कमर पकड़कर श्रृंखला बनायेंगे , शुरू के दोनों खिलाड़ी हाथ या रस्सी पकडे़गे । दूसरे दल को
खींचकर अपनी ओर ले आने वाला दल विजयी होगा।
2. रस्साकशी - पूर्व खेल की भाँति मोटे तथा लम्बे रस्से के मध्य - बिन्दु पर बँधे रूमाल को निर्धारित दूरी तक अपनी ओर खींचने वाला दल विजयी होगा।
4. मंडल के खेल -
1. चूहा - बिल्ली - सब हाथ पकड़ कर मंडल / गोला बनायेंगे , एक खिलाड़ी बाहर (बिल्ली) तथा एक अन्दर (चूहा) रहेगा। सीटी बनजे पर बिल्ली चूहे को पकड़ेगी पर सब उसे बचाने का प्रयत्न करेगे, यदि चूहा अन्दर है तो सब बिल्ली को बाहर ही रोकेंगे, यदि बिल्ली अन्र आ गई है तो चूहे को सुरक्षित बाहर निकाल देंगे । इस प्रकार खेल चलता रहेगा।
2. चुनौती - सभी खिलाड़ी मंडल बनाकर बैठेगे , खिलाड़ी अ के पास रूमाल रहेगा। जिसे वह दौड़ते हुए चुपचाप मंडल के किसी भी खिलाड़ी ब के पीछे चुपचाप रखेगा। यदि ब को इसका पता लग गया तो वह अ का पीछा कर उसे मुक्के मारेगा अन्यथा परिक्रमा पूरी कर अ रूमाल उठाकर ब को मुक्के मारेगा , ब बचने हेतु दौडे़गा तथा एक परिक्रमा कर अपने स्थान पर बैठेगा।
3. कुरू - मूर्ति - सब मंडलाकार दौडेंगे , षिक्षक विभिन्न उद्घोश बोलता रहेगा , अचानक वह बीच में जोर से मूर्ति कहेगा। इस पर सभी खिलाड़ी मूर्तिवत स्थिर हो जायेंगे , जो खिलाड़ी हिलता दिखाई दिया , वह बाहर हो जायेगा। कुरू कहने पर फिर दौड़ने लगेगे , सबसे अन्त तक बचने वाला विजयी होगा।
4. बगुला भगत - मंडल के बीच में एक रूमाल रखा होगा , शिक्षक जिस खिलाड़ी का नाम या अंक बोलेगा, वह एक पैर पर कूदता हुआ आयेगा तथा हाथ पीछे बाँध कर मुँह से रूमाल उठायेगा।
5. वाह रे बुद्धू - एक छोटा गोला बनाकर उसमें एक स्वयंसेवक खड़ा होगा। सब उसकी पीठ पर मुक्का मार कर वाह रे बुद्धू कहेंगे। वह मंडल के अन्दर रहते हुए ही उन्हें छूने का प्रयास करेगा। इस प्रकार जो स्वयंसेवक छुआ जायेगा, अब उसे बीच में आना होगा।
6. मत चूको चैहान - शिक्षक किसी भी खिलाड़ी को ईट के पास बुलाएगा फिर उसकी आँख बंद कराकर लट्टू की तरह उसी स्थान पर तीन चक्कर लगवाएगा। अब वह ईंट पर दंड मारने का प्रयास करेगा ।तीन प्रयास में भी सफल न होने वाला खेल से बाहर हो जाएगा।
और भी बहुत से ऐसे खेल है जिनका वर्णन इस एक ही लेख में करना सम्भव नहीं हो पाया। इसलिए अन्य खेलों के लिए अगला लेख जल्द.
“ The battle at waterloo was won on the playground of Haroow & Eton”.
यह अंग्रेजी वाक्य अथवा स्वामी विवेकानंद द्वारा भारतीय युवकों को श्रीमद्भगवत्गीता को ठीक से समझने के लिए फुटबाॅल के मैदान में उतरने का उपदेष इसी सत्य को निर्देषित करता है।
खेल के विशय में इस सत्य को समझ कर उनके माध्यम से संस्कार व व्यक्ति - विकास का सफल व व्यापक प्रयोग राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किया , जिसे आज भी शाखा के मैदान पर जाकर अनुभव कर सकते है। इन खेलों से एक विश्व व्यापी संगठन खड़ा हो गया।
1. विभिन्न प्रकार की दौड़
1. एक टाँग की (लगड़ी) दौड़ (प्रकार 1) -
बायें हाथ से बायें पैर को पीछे की ओर टखने के पास पकड़ कर , प्रारम्भ रेखा से निर्धारित स्थान तक इसी स्थिति में एक टाँग से दौड़ना
। वापस आते समय दूसरी टाँग का उपयोग करें।
2. एक टाँग की दौड़ (प्रकार 2) -
एक टाँग पर दौड़ते समय हथेली के पृश्ठ भाग, कोहनी , कंधे या सिर पर कोई सिक्का या पत्थर रखकर दौड़े ।इन वस्तुओं को बिना गिराये, निर्धारित दूरी सबसे सबसे पहले पूरी करने वाला विजयी होगा।
3. बिच्छू दौड़ - दोनो हाथ तथा एक पैर के सहारे निर्धारित लक्ष्य तक दौड़ना , दूसरा पैर बिच्छू की दुम की तरह ऊपर उठा रहेगा। वापसी पर पैर बदल भी सकते है।
4. ठेला दौड़ - एक खिलाड़ी अपने दोनो हाथ धरती पर रखेगा , दूसरा उसके पैरों को टखनों के पास से पकड़कर कमर तक उठायेगा । इस प्रकार बनी जोड़ी निर्धारित स्थान तक जायेगी, वापसी पर दोनों खिलाड़ी अपनी स्थिति बदल लेंगे।
5. गणित दौड़ - 4 - 6 मेज, प्रत्येक पर एक बड़े कागज पर गणित के कुछ प्रश्न लिखें खिलाड़ी पेन लेकर दौड़गे। सबप्रष्न ठीक हल करके सबसे पहले वापिस आने वाला खिलाड़ी विजयी होगा।
2. स्पर्ष के खेल
1. गणेष छू - एक खिलाड़ी बायें हाथ से अपनी नाक पकड़ेगा तथा दाहिने हाथ को इसके बीच से सँूड की तरह निकाल कर बाकी सबको छूएगा।जो खिलाड़ी छुए जायेंगे वे भी इसी प्रकार गणेष बन कर छूना शुरू कर देंगे, सबके गणेक बन जाने पर खेल समाप्त होगा।
2. लाहौर किसका - भूमि पर एक छोटा गड्ढा बनाकर एक खिलाड़ी उसमें पैर की एड़ी रखकर खड़ा होगा तथा उच्च स्वर से पूछेगा
- लाहौर किसका ? सब उत्तर देंगे - हमारा । तीन बार इस उद्घोश के बाद सब लाहौर पर कब्जा करने हेतु धक्का - मुक्की करेंगे। निर्धारित समय (30 सेंकड) बाद सीटी बजने पर जिसकी एड़ी वहाँ होगी । वही विजयी माना जायेगा, इस प्रकार खेल चलता रहेगा।
3. दर्दीले घुटने - दौड़ने वाले खिलाड़ी अपने हाथ घुटनों पर रखकर दौड़ेगे, छूने वाला खिलाड़ी दोनों हाथ सिर के पीछे बाँधकर सिर या कोहनी से छुएगा।
4. दो दलों के खेल -
1. शक्ति परिचय (प्रकार 1 ) - दोनों दलों के खिलाड़ी आगे - पीछे एक दूसरें की कमर पकड़कर श्रृंखला बनायेंगे , शुरू के दोनों खिलाड़ी हाथ या रस्सी पकडे़गे । दूसरे दल को
खींचकर अपनी ओर ले आने वाला दल विजयी होगा।
2. रस्साकशी - पूर्व खेल की भाँति मोटे तथा लम्बे रस्से के मध्य - बिन्दु पर बँधे रूमाल को निर्धारित दूरी तक अपनी ओर खींचने वाला दल विजयी होगा।
4. मंडल के खेल -
1. चूहा - बिल्ली - सब हाथ पकड़ कर मंडल / गोला बनायेंगे , एक खिलाड़ी बाहर (बिल्ली) तथा एक अन्दर (चूहा) रहेगा। सीटी बनजे पर बिल्ली चूहे को पकड़ेगी पर सब उसे बचाने का प्रयत्न करेगे, यदि चूहा अन्दर है तो सब बिल्ली को बाहर ही रोकेंगे, यदि बिल्ली अन्र आ गई है तो चूहे को सुरक्षित बाहर निकाल देंगे । इस प्रकार खेल चलता रहेगा।
2. चुनौती - सभी खिलाड़ी मंडल बनाकर बैठेगे , खिलाड़ी अ के पास रूमाल रहेगा। जिसे वह दौड़ते हुए चुपचाप मंडल के किसी भी खिलाड़ी ब के पीछे चुपचाप रखेगा। यदि ब को इसका पता लग गया तो वह अ का पीछा कर उसे मुक्के मारेगा अन्यथा परिक्रमा पूरी कर अ रूमाल उठाकर ब को मुक्के मारेगा , ब बचने हेतु दौडे़गा तथा एक परिक्रमा कर अपने स्थान पर बैठेगा।
3. कुरू - मूर्ति - सब मंडलाकार दौडेंगे , षिक्षक विभिन्न उद्घोश बोलता रहेगा , अचानक वह बीच में जोर से मूर्ति कहेगा। इस पर सभी खिलाड़ी मूर्तिवत स्थिर हो जायेंगे , जो खिलाड़ी हिलता दिखाई दिया , वह बाहर हो जायेगा। कुरू कहने पर फिर दौड़ने लगेगे , सबसे अन्त तक बचने वाला विजयी होगा।
4. बगुला भगत - मंडल के बीच में एक रूमाल रखा होगा , शिक्षक जिस खिलाड़ी का नाम या अंक बोलेगा, वह एक पैर पर कूदता हुआ आयेगा तथा हाथ पीछे बाँध कर मुँह से रूमाल उठायेगा।
5. वाह रे बुद्धू - एक छोटा गोला बनाकर उसमें एक स्वयंसेवक खड़ा होगा। सब उसकी पीठ पर मुक्का मार कर वाह रे बुद्धू कहेंगे। वह मंडल के अन्दर रहते हुए ही उन्हें छूने का प्रयास करेगा। इस प्रकार जो स्वयंसेवक छुआ जायेगा, अब उसे बीच में आना होगा।
6. मत चूको चैहान - शिक्षक किसी भी खिलाड़ी को ईट के पास बुलाएगा फिर उसकी आँख बंद कराकर लट्टू की तरह उसी स्थान पर तीन चक्कर लगवाएगा। अब वह ईंट पर दंड मारने का प्रयास करेगा ।तीन प्रयास में भी सफल न होने वाला खेल से बाहर हो जाएगा।
और भी बहुत से ऐसे खेल है जिनका वर्णन इस एक ही लेख में करना सम्भव नहीं हो पाया। इसलिए अन्य खेलों के लिए अगला लेख जल्द.
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